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________________ 296 अनासक्त जीवन की कला भी नहीं आ सकती। इसी अनासक्त मृत्यु की कला को महावीर ने संलेखना व्रत कहा है। जैन परंपरा में संथारा, संलेखना, समाधिमरण, पण्डितमरण और सकाममरण आदि निष्काम मृत्युवरण के ही पर्यायवाची नाम हैं। (आचार्य समन्तभद्र संलेखना की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि आपत्ति, अकाल, अतिवृद्धावस्थाएवं असाध्य रोगों में शरीर त्याग करने को संलेखना कहते हैं। अर्थात् जिन स्थितियों में मृत्यु अनिवार्य सी हो गई हो उन परिस्थितियों में मृत्यु के भय से निर्भय होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करना ही संलेखना व्रत है। समाधिमरण के भेदः जैनागम ग्रंथों में मृत्युवरण के अवसरों की अपेक्षा के आधार पर समाधिमरण के दो प्रकार माने गये हैं - (1) सागारीसंथाराऔर (2) सामान्य संथारा। सागारीसंथाराः जब अकस्मात् कोई ऐसी विपत्ति उपस्थित हो जाए कि उसमें से जीवित बच निकलना संभव प्रतीत न हो, जैसे आग में गिर जाना, जल में डूबने जैसी स्थिति हो जाना अथवा हिंसक पशु या किसी ऐसे दुष्ट व्यक्ति के अधिकार में फँस जाना जहाँ सदाचार से पतित होने की संभावना हो, ऐसे संकटपूर्ण अवसरों पर जो संथारा ग्रहण किया जाता है, वह सागारी संथारा कहा जाता है। यदि व्यक्ति विपत्ति या संकटपूर्ण स्थिति से बाहर हो जाता है तो वह पुनः देहरक्षण के सामान्य क्रम को चालू रख सकता है। संक्षेप में अकस्मात् मृत्यु का अवसर उपस्थित हो जाने पर जो संथारा ग्रहण किया जाता है, वह सागारी संथारा मृत्यु पर्यंत के लिए नहीं, वरन् परिस्थिति विशेष के लिए होता है। अतः उस परिस्थिति विशेष के समाप्त हो जाने पर उस व्रत की मर्यादाभी समाप्त हो जाती है। 4. 'उपसर्गे दुर्भिक्षे जरासिरुजायांच निष्प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः संलेखनामार्याः॥ - रत्नकरण्डश्रावकाचार, अध्याय 5 15. द्रष्टव्य है - अंतकृतदशांगसूत्र के अर्जुनमालीअध्याय में सुदर्शन सेठ के द्वारा किया गया सागारीसंथारा।
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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