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292 8- संथारगपइण्णय नन्दीसूत्र और पाक्षिक सूत्र में मिलने वाले आगमों के वर्गीकरण में उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रवेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, आतुरप्रत्याख्यान और महाप्रत्याख्यान- ये सात नाम तथा कालिक सूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति- ये दो नाम, अर्थात् वहाँ कुल नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है। किन्तु उपरोक्त वर्गीकरण में संथारगपइण्णय' (संस्तारक-प्रकीर्णक) का कहीं भी उल्लेख नहीं है। तत्त्वार्थभाष्य और दिगम्बर परंपरा की तत्त्वार्थ की टीका सर्वार्थसिद्धि में जहाँ अंगबाह्य चौदह ग्रंथों का उल्लेख है, उनमें भी संस्तारक प्रकीर्णक का उल्लेख नहीं हुआ है। इसी प्रकार यापनीय परंपरा में ग्रंथों मूलाचार, भगवती आराधना आदि में यद्यपि उत्तराध्ययन सूत्र; दशवैकालिक सूत्र, दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहार, वृहत्कल्प, जीतकल्प और निशीथसूत्र आदि ग्रंथों के उल्लेख तो मिलते हैं, किन्तु उनमें भी कहीं भी संस्तारक प्रकीर्णक का उल्लेख नहीं मिलता है। ___संस्तारक प्रकीर्णक का सर्वप्रथम उल्लेख हमें विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ, 14वीं शताब्दी) में उपलब्ध होता है। उसमें प्रकीर्णकों में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान, आतुरप्रत्याख्यान, संस्तारक, चन्द्रवेध्यक, भक्तपरिज्ञा, चतुःशरण, वीरस्तव, गणिविद्या, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, संग्रहणी और गच्छाचार आदि प्रकीर्णकों का उल्लेख हुआ है । विधिमार्गप्रपा में संस्तारक प्रकीर्णक का उल्लेख होना यह सिद्ध करता है कि उसे 14वींशती में एक प्रकीर्णक के रूप में मान्यता प्राप्त थी।
सामान्यतया प्रकीर्णकों का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रंथ ही किया जाता है। नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि के अनुसार तीर्थङ्गरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते थे। परंपरागत मान्यता है कि प्रत्येक
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(क) नन्दीसूत्र - सम्पा. मुनि मधुकर, प्रका. आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ; ई. सन् 1982, पृष्ठ 161-162 (ख) पाक्षिकसूत्र - प्रका. देवचन्द्र लालाभाई जैन पुस्तकोद्धारफण्ड, पृष्ठ 76 देवंदत्थयं - तंदुलवेयालिय - मरणसमाहि - महापच्चक्खाण - आउरपच्चक्खाणसंथारय - चंदाविज्झय - चउसरण - वीरत्थय - गणिविज्जा - दीवसागरपण्णत्ति - संगहणी- गच्छायार = इच्चाइपइण्णगाणि इक्किक्केण निविएग्गवच्चंति।
- विधिमार्गप्रपा, सम्पा. जिनविजय, पृष्ठ 57-58