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________________ 257 समय-समय पर जैन आचार्यों ने इस स्वच्छन्द और सुविधावादी आचार व्यवस्था का विरोध करके आगमोक्त प्राचीन आचार व्यवस्था को पुर्नस्थापित करने का प्रयत्न किया। गच्छाचार भी एक ऐसा ही ग्रंथ है जो सुविधावादी और स्वच्छन्द आचार व्यवस्था के स्थान पर आगमोक्त आचार व्यवस्था का निरुपण करता है। गच्छावार प्रकीर्णक के सम्पादन में प्रयुक्त हस्तलिखित प्रतियाँ: हमने प्रस्तुत संस्करण का मूलपाठ मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित एवं श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई से प्रकाशित पइण्णयसुत्ताई' ग्रंथ से लिया है। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने इस ग्रंथ के पाठ निर्धारण में निम्नलिखित प्रतियों का उपयोग किया है 1. सा. : आचार्य श्री सागरानन्दसूरीश्वरजी द्वारा संपादित एवं वर्ष 1927 में आगमोदय समिति, सूरत द्वारा प्रकाशित प्रति। 2. जे. : आचार्यश्री जिनभद्रसूरिजैन ज्ञानभण्डार की ताड़पत्रीय प्रति। 3. सं. : संघवीपाडा जैन ज्ञानभंडार की उपलब्धताडपत्रीय प्रति। 4. पु. : मुनि श्री पुण्यविजयजी महाराज की हस्तलिखित प्रति। 5. वृ. : श्री विजयविमलगणि कृत गच्छाचार प्रकीर्णकवृत्ति, श्री भद्राणविजयगणि द्वारा संपादित एवं वर्ष 1979 में दयाविमल ग्रंथमाला, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशितप्रति। इन पाण्डुलिपियों की विशेष जानकारी के लिए हम पाठकों से पइण्णयसुत्ताई ग्रंथ की प्रस्तावना के पृष्ठ 23-27 देख लेने की अनुशंसा करते हैं। गच्छाचार प्रकीर्णक के प्रकाशित संस्करण: अर्द्धमागधी आगम साहित्य के अंतर्गत अनेक प्राचीन एवं अध्यात्मप्रधान प्रकीर्णकों का निर्देश प्राप्त होता है,किन्तु व्यवहार में इन प्रकीर्णकों के प्रचलन में नहीं
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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