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240 शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, सिद्धि, व्यतीपात, वरीयान् परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, ऐन्द्र और वैधृति ये 27 योग होते हैं। इन योगों में वैधृति और व्यतीपात योग समस्त शुभ कार्यों में त्याज्य है। परिघ योग का आधा भाग वर्ण्य है। विष्कम्भ और वज्रयोग की तीन-तीन घटिकाएँ, शूलयोग की पाँच घटिकाएँ एवं गण्ड और अतिगण्ड की छ:-छः घटिकाएँशुभ कार्यों में वज्र हैं।'
नक्षत्रों के नाम, वर्ण, राशि, उनके स्वामी, उनकी संज्ञाएँ एवं उनमें करणीय एवं अकरणीय कार्यों का वर्णन संलग्न चार्ज द्वाराभी जाना जा सकता है।'
(संलग्न - सारणी नं. 1, 2 पृष्ठ सं. 36 से 39 तक) __4. करणद्वार- बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि, शकुनी , चतुष्पद, नाग और किंस्तुघन ये 11 कारण होते हैं। बव करण में शांति और पौष्टिक कार्य, बालव में गृह निर्माण, गृह प्रवेश, निधिस्थापन, दान-पुण्य के कार्य, कौलव में पारिवारिक कार्य, मैत्री, विवाह आदि तैतिल में नौकरी सेवा, राजा से मिलना, राजकार्य आदि, गर में कृषि कार्य, वणिज में व्यापार, क्रय-विक्रय आदि कार्य, विष्टि में उग्र कार्य, शकुनी में मंत्र-तंत्र सिद्धि औषध निर्माण आदि चतुष्पद में पशु खरीदनाबेचना, पूजा-पाठ करना आदि ना गमे स्थिर कार्य एवं किंस्तुघ्न में चित्र खींचना, नाचना-गाना आदि कार्य करना श्रेष्ठ माने गये हैं। विष्टि, भद्रा समस्त शुभ कार्यों में त्याज्य है।
भावार्थ : भद्रा में कोई भी काम सिद्ध नहीं होता है। शुक्लपक्ष की अष्टमी पौर्णमासी के पूर्वार्द्ध में तथा एकादशी और चतुर्थी के परार्ध में एवं कृष्णपक्ष की तृतीया और दशमी के परार्ध में और सप्तमी तथा चतुर्दशी के पूर्वार्द्ध में भद्रा होती है।
(सुगम ज्योतिष पृ. 85)
1. 2.
व्रततिथिनिर्णयपृ.83-84 मुहूर्तराज- राजेन्द्र टीका सहित, पृ. 15, 19 व्रततिथि निर्णय, पृ. 84-85 न सिद्धिायाति कृतं च विष्ट्यां विषारिघातादिषु तन्त्रसिद्धिः। न कुर्यान्मंगलं विष्टयां जीवितार्थी कदाचन। शुक्ले पूर्वाधेऽष्टमीपंचदश्योभद्रकादश्यां चतुर्थी परार्धे। कृष्णेऽन्त्यार्धे स्यात् तृतीयादशम्यो: पूर्वे भागे सप्तमीशम्भुतिथ्योः।