SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 221 ग्रहदिवस के रूप में आती है। गणिविद्या दिवस और ग्रहदिवस के रूप में तिथि एवं वार दोनों की अवधारणाओं को प्रस्तुत करता है जबकि प्राचीन अभिलेखों एवं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में वार की अवधारणा अनुपस्थित है। भारतीय ज्योतिष में भी वार की अवधारणा गुप्तकाल से पूर्व प्राप्त नहीं होती है। मथुरा के अभिलेखों में जहाँ तिथि एवं मास का उल्लेख पाया जाता है वहाँ भी कहीं भी वार का उल्लेख नहीं है । जैन अभिलेखीय साक्षों में वार के उल्लेख लगभग 7वीं शताब्दी के पश्चात् ही पाये जाते हैं । किन्तु इतना अवश्य माना जा सकता है कि इसके पूर्व ग्रहदिवस के रूप में वार की परिकल्पना भारतीय ज्योतिष में आ गई थी। इस प्रकार साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्षों में जो फलित निकाले जा सकते हैं उनके आधार पर हम इतना ही कह सकते हैं कि गणिविद्या पाँचवीं शताब्दी के आसपास की ही रचना है। इसकी कालावधि को इससे नीचे इसलिए नहीं ले जाया जा सकता है कि पाँचवीं शताब्दी के ग्रंथ नन्दी एवं पाक्षिकसूत्र में इसका स्पष्ट निर्देश है । पुनः गणिविद्या वस्तुतः गणित ज्योतिष का ग्रंथ न होकर फलित ज्योतिष का ग्रंथ है। दूसरे ग्रह, नक्षत्र, मुहूर्त, वार, करण आदि के शुभत्त्व व अशुभत्व के संबंध में जो दृष्टिकोण गणिविद्या में उपलब्ध होता है, उसका संपौषण परवर्ती जैन एवं जैनेत्तर फलित ज्योतिष के ग्रंथों से भी हो जाता है। अतः इतना अवश्य कहा जा सकता है कि फलित ज्योतिष के संदर्भ में गणिविद्या जैन परंपरा का संभवतः प्रथम ग्रंथ है । यहाँ हम संभवतः शब्द का प्रयोग इसलिए कर रहे हैं कि इसक पूर्व सूर्यप्रज्ञप्ति में फलित ज्योतिष से संबंधित किंचित विवरण प्राप्त होता है किन्तु उन विवरणों की प्रकृति एवं स्वरूप को देखकर ऐसा लगता है कि वे विवरण मूलतः जैन परंपरा से न होकर जैनेत्तर परंपरा से ही ग्रहीत हुए है। सामान्य बुद्धि का मनुष्य भी यह निश्चित कर सकता है कि सूर्यप्रज्ञप्ति में जिन विधि-विधान एवं फलितों का उल्लेख है वह अहिंसक जैन परंपरा के द्वारा संभव नहीं है। वैसे तो जहाँ तक हमारा दृष्टिकोण है फलित ज्योतिष संबंधी समस्त चर्चाएँ जैनेत्तर परंपरा से ही जैन परंपरा में ग्रहीत हुई है क्योंकि अध्यात्मसाधना प्रधान निवृत्ति- मार्गी जैन परंपरा में इनका कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं हो सकता। इस प्रसंग में गणिविद्या की जो विशेषता है उसे भी यहाँ चिन्हित करना अपेक्षित होगा- जहाँ जैनेत्तर परंपरा के फलित ज्योतिष के ग्रंथों में धार्मिक एवं लौकिक दोनों प्रकार के कार्यों में मुहूर्त आदि की चर्चा उपलब्ध होती है वहाँ गणिविद्या ·
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy