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________________ 220 रूप में अपना उल्लेख नहीं किया है। यद्यपि विमलसूरि के पउमचरियं एवं हरिभद्र के ग्रंथ ऐसे ग्रंथ हैं जिनमें उन्होंने स्पष्ट रूप से या सांकेतिक रूप से अपने कर्ता होने का परिचय दे दिया है। किन्तु जहाँ तकगणिविद्या प्रकीर्णक का प्रश्न है इसमें हमें न तो स्पष्ट रूपसे और न ही संकेत रूप से इसके कर्ता का परिचय मिलता है। अंत में भी ग्रंथकार मात्र यह कहता है कि अनुयोग के ज्ञायक सुविहितों के द्वारा यह बलाबल विधि कही गई है। इस प्रकार अंत में भी वह अपने नाम का संकेत नहीं करता है, मात्र इसे सुविहित मुनियों की रचना मानता है। फिर भी हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि यह ग्रंथ किसी श्रुत स्थविर की ही रचना है, जो अनुयोग का धारक था। अनुयोगधरों की यह परंपरा चतुर्थ या पंचमी शताब्दी में स्पष्ट रूप से प्रचलित थी, ऐसे संकेत हमें नंदीसूत्र एवं कल्पसूत्र की स्थविरावलियों में मिलते हैं। . - पुनः नंदीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में इस ग्रंथ का नामोल्लेख होना स्पष्ट रूप से यह बताता है कि इसकी रचना विक्रम की पाँचवी शताब्दी के पूर्व ही हुई होगी। जहाँ तक इसकी विषयवस्तु का प्रश्न है नन्दीचूर्णि एवं नन्दीवृत्ति में जिस रूप में उल्लेख है, उसी रूप मेंआज भी पाई जाती है। अतः इस बात में भी संदेह का कोई अवकाश नहीं कि प्रस्तुत गणिविद्या एवं नन्दीसूत्र एवं पाक्षिक सूत्र में उल्लेखित गणिविद्याअलग-अलग ____ गणिविद्या में जिन दिवस, तिथि, ग्रह, नक्षत्र, मुहूर्त, वार आदि विषयों का उल्लेख हुआ है, उनमें से सिर्फ वार को छोड़कर बाकी सभी का उल्लेख जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में भी प्राप्त होता है। मात्र अंतर यह है कि जहाँ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में ग्रह, नक्षत्र, करण, मुहूर्त आदि के विभिन्न नाम एवं प्रकार आदि का उल्लेख है वहीं प्रस्तुत कृति में इनका उल्लेख अधिक नहीं पाया जाता है कि कौन-सा नक्षत्र, ग्रह, मुहूर्त, करण आदि किस प्रकार मुनि जीवन से संबंधित कार्यों के लिए शुभया अशुभ है। ____ इस आधार पर यह अनुमान अवश्य कर सकते हैं कि जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के प्रस्तुत अंश के बाद ही इस ग्रंथ की रचना हुई इस प्रकार प्रस्तुत ग्रंथ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के बाद एवं नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र के पूर्व रचित है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में जिन विषयों का प्रतिपादन हुआ है उसके आधार पर विद्वान उसे ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी की रचना मानते हैं। इस प्रकार गणिविद्या का रचनाकाल तीसरी और पाँचवीं शताब्दी के मध्य कभी भी माना जा सकता है। पुनः गणिविद्या में स्पष्ट रूप से वार की परिकल्पना
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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