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में मात्र श्रमण-श्रमणियों के सांधनात्मक जीवन के संदर्भ में ही ग्रह, नक्षत्र आदि की शुभाशुभ फलों पर विचार किया गया है। :इस ग्रंथ में एक और विशेषता यह देखने को मिलती है कि जिन ग्रह, नक्षत्र आदि को सामान्य परंपरा में अशुभ या क्रूर माना जाता है, उनमें जैनाचार्यों ने समाधिमरण ग्रहण करने का उल्लेख करके यह सूचित कर दिया कि अशुभ माने जाने वाले नक्षत्र, ग्रह, करण, मुहूर्त आदि भी सभी कार्यों के लिए अशुभ नहीं है उनको आत्म साधना के द्वारा मांगलिक रूप दिया जा सकता है। जैन परंपरा में समाधिमरण को मंगलरूप कहा गया है। - इस प्रकार उपरोक्त चर्चाओं से स्पष्ट हो जाता है कि गणिविद्या किसी स्थविर आचार्य की रचना है, जो फलित ज्योतिष के आधार पर अध्यात्मिक कार्यों को करने का निर्देश इस ग्रंथ में करना चाहता था। इस ग्रंथ का नामोल्लेख नंदी एवं पाक्षिक सूत्रों में होना, फलित ज्योतिष के विषय का प्रथम ग्रंथ होना, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र, व्याख्या ग्रंथों एवं अन्य प्राचीन जैनेतर ग्रंथों में इसके विषय का निरुपण होना आदि सब प्रसंग इसे पाँचवीं शताब्दी के पूर्व होना ही सिद्ध करते हैं। विषयवस्तु
गणिविद्या प्रकीर्णक में नौ विषयों का निरुपण है। जो इस प्रकार है-दिवस, तिथि, नक्षत्र करण, ग्रह, मुहूर्त, शकुनबल, लग्नबल और निमित्तबल। - ग्रंथ के अध्ययन एवं अनुवाद से यह प्रतिफलित होता है कि दैनंदिन जीवन के व्यवहार, अध्ययन, दीक्षा आदि कार्य, ज्योतिष संबंधी शुभ मुहूर्तों में करने चाहिए। परंतु यह ग्रंथकार का अपना एक दृष्टिकोण है। कई परम्पराएँ एवं समाज व्यवस्थाएँ ऐसी भी हैं जो इन सब पर आस्था ही नहीं रखती हैं । हमारा उद्देश्य ग्रंथ में प्रतिपादित निमित्त शात्र विषयक मान्यताओं को उद्गाटित करना मात्र है। ___(1) तिथिद्वारा- चन्द्रमा की एक कला को तिथि माना जाता है। इसका निर्णय चन्द्र एवं सूर्य के अंतरांशों के आधार पर किया जाता है। अमावस्या के बाद प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक की तिथियाँ शुक्ल पक्ष की एवं पूर्णिमा के बाद प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक की तिथियाँ कृष्ण पक्ष की होती हैं । गणिविद्या में इन दोनों पक्षों की 15-15 तिथियों का वर्णन किया गयाहै। यहाँ कहा गया है कि प्रतिपदा एवं द्वितीया में