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________________ 218 सामाइयारोवणं (2) उवट्ठावणा (3) सुत्तस्स उद्देससमुद् देसाऽणुण्णातो (4) गणारोवणं (5) दिसाणुण्णा (6) खेत्तेसु य णिग्गमपत्रेसा (7) एमाइया कज्जा जैसु तिहि - करण-णक्ख़त्त-मुहुत्त-जोगेसु य जे जत्थ करणिज्जा ते जत्थऽज्झयणे वणिज्जंति तमज्झयणंगणिविद्या" ___ अर्थात् गण का अर्थ समस्त बाल-वृद्ध मुनियों का समूह। जो ऐसे गण का स्वामी है वहगणी कहलाता है। विद्या का अर्थ होता है- ज्ञान। ज्योतिष-निमित्त विषयक ज्ञान के आधार पर जिस ग्रंथ में दीक्षा, सामायिक का आरोपण, व्रत में स्थापना, श्रुत संबंधित उपदेश, समुद्देश, अनुज्ञा, गण का आरोपण, दिशानुज्ञा, निर्गम, (विहार) प्रवेशआदि कार्यों के संबंध में तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्त एवं योग का निर्देश हो, यह "गणिविद्या" कहलाता है।' श्री हरिभद्रसूरि कृत नन्दिसूत्रवृत्ति में इस प्रकीर्णक का परिचय इस प्रकार दिया गया है “गुणगणोऽस्यास्तीति गणी, स चाऽऽचार्यः, तस्य विद्याज्ञानं गणिविद्या । तत्राविशेषेऽप्ययं विशेषः-जोतिष, निमित्तणाणं गणिणो पव्वावणादिकज्जेसु । उवयुज्जइ तिहि-करणादिजाणणठ्ठऽनहा दोसो''। अर्थात् गुणों का समूह जिसमें हो वह गणी कहलाता है। गणीको आचार्य भी कहा जाता है उस आचार्य की विद्या (निमित्त-विद्या) को गणिविद्या कहा जाता है। इसमें विशेष रूप से यह बताया गया है कि प्रव्रज्या आदि कार्यों के समय, वार, तिथि आदि का निश्चय करने में ज्योतिष (निमित्त)के ज्ञान का उपयोग करना चाहिए अन्यथा दोष की अथवा हानि होने की संभावना रहती है। ग्रंथ में प्रयुक्त हस्तलिखित प्रतियों का परिचयमुनिश्री श्री पुण्यविजयजी ने इस ग्रंथ के पाठ निर्धारण में निम्न हस्तलिखित प्रतियों का प्रयोग किया है। 1.सं. - श्री हेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञान मंदिर-पाटन की प्रति। यह संघवी- पाड़ा जैन ज्ञानभंडार की प्रति है, जो ताड़पत्र पर लिखि हुई है। 1. नन्दिसूत्रचूर्णिसहित -प्राकृत टेक्सट् सोसायटीद्वारा प्रकाशित - अहमदाबाद, पृ. 58। - 2. नन्दिसुत्तम-प्रा.टे. सोसायटी, अहमदाबाद, पृ. 71।
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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