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________________ काल ईस्वीपूर्व तीसरी शताब्दी के आसपास का माना है। चूँकि देवेन्द्रस्तव' में भीवे ही मान्यताएँ प्रस्तुत की गई हैं, अतः वह भी उसका समकालीन या कुछ परवर्ती माना जा सकता है। हमें ‘देवेन्द्रस्तव' की अधिकांश गाथाएँ अर्थात् तीन सौ में से लगभग आधी गाथाएँ सूर्यप्रज्ञप्ति, स्थानांग, प्रज्ञापना, समवायांग आदि में यथावत् रूप से अथवा किचिंत् पाठान्तरों के साथ मिली है, जिसका विस्तृत तुलनात्मक विवरण हमने इसी प्रभावना के अंत में दिया है। गाथाओं की यह समानता हमारे सामने दो प्रतिपत्तियाँ प्रस्तुत करती हैं, या तो 'देवेन्द्रस्तव' से ये गाथाएँ इन आगम ग्रंथों में गई हों या फिर आगम ग्रंथों से ये गाथाएँ 'देवेन्द्रस्तव' में ली गई हो। यद्यपि यह एक कठिन और विवादास्पद प्रश्न हो सकता है किन्तु फिर भी हमारी दृष्टि में कुछ तथ्य ऐसे है जिनसे यह फलित होता है कि ये गाथाएँ 'देवेन्द्रस्तव' से ही आगम ग्रंथों में गई है। इस संबंध में हम विद्वानों से गंभीर चिंतन की अपेक्षा करते हैं और यदि वे अन्य कोई प्रमाण प्रस्तुत कर सके तो हमें अन्यथा मानने में भी कोई विप्रतिपत्ति नहीं होगी। किन्तु हमारा जो यह मानना है कि ये गाथाएँ 'देवेन्द्रस्तव' से इन आगम ग्रंथों में गई हैं, निराधार नहीं है और विद्वानों को अन्यथा निर्णय लेने के पूर्व उन आधारों पर विचार कर लेना चाहिए (1) प्रथम तो यह कि सूर्यप्रज्ञप्ति, प्रज्ञापना, स्थानांग, समवायांग ये सभी ग्रंथ गद्यात्मक शैली के हैं और इनमें से अधिकांश में तो “गाहाओ' कहकर ही इन गाथाओं को प्रस्तुत किया गया है। सामान्यतया गद्यात्मक ग्रंथ में उस विषय से संबंधित गाथाओं को गाहाओ' लिख कर कहीं से अवतरित ही किया जाता रहा है। चूंकि यहाँ भी ये गाथाएँ अवतरित की गई है। अतः इन गाथाओं का रचना-काल इन ग्रंथों से पूर्व ही मानना चाहिए। यदि हम गाथाओं को परवर्ती मानते हैं तो यह मानना होगा कि आगे चलकर ये गाथाएँ उन ग्रंथों में सम्मिलित कर ली गई है। . (2) जिन ग्रंथों में ये गाथाएँ मिली हैं, उनमें से सूर्यप्रज्ञप्ति को छोड़कर स्थानांग, समवायांग, प्रज्ञापना, जीवाभिगम आदि सभी को विद्वानों ने ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी या उसके पश्चातकालीन रचना माना है। स्थानांग और समवायांग तो परवर्ती संकलन ग्रंथ हैं। स्थानांग के वीर निर्वाण के 584 वर्ष पश्चात् हुए निहवों का तथा ई.पू. प्रथम शती के गणों का उल्लेख होने से यह ई. सन् प्रथम शती के पूर्व की रचना नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार प्रज्ञापना के कर्ता आर्य श्याम कल्पसूत्र की
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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