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स्थविरावली के अनुसार ऋषिपालित से परवर्ती है अतः संभावना यही है कि 'देवेन्द्रस्तव' से ही ये गाथायें इनमें गई है। हो सकता है कि सूर्यप्रज्ञप्ति में इन्हें बाद में सम्मिलित किया गया हो ।
( 3 ) पुनः जहाँ 'देवेन्द्रस्तव' एक सुव्यवस्थित रचना है वहाँ दूसरे आगम ग्रंथों प्रसंगानुसार ये गाथाएँ समाहित की गई प्रतीत होती हैं। इन गाथाओं की भाषा-शैली से भी ऐसा लगता है कि यह एक ही व्यक्ति और एक ही काल की कृति है, जबकि जिन आगमों में से गाथाएँ उपलब्ध होती हैं, उनमें स्थानांग आदि ऐसे हैं जिनमें भिन्न-भिन्न कालों की विषय वस्तु का संकलन होता रहा है। संभावना यही है कि 'देवेन्द्रस्तव' से, जो किसी समय एक बहुप्रचलित स्वाध्यायग्रंथ रहा होगा, इन परवर्ती आगम ग्रंथों का निर्माण करते समय इसकी गाथाएँ यथाप्रसंग अवतरित कर ली गई होगी। साथ ही यह कम ही विश्वसनीय लगता है कि अनेक ग्रंथों से गाथाओं का संकलन करके यह ग्रंथ बनाया गया होगा। ‘देवेन्द्रस्तव' का एक व्यक्तिकृत और एक काल की रचना होना यही सिद्ध करता है कि गाथाएँ इसी से अन्य आगम ग्रंथों में गई हैं। इस भूमिका के अंत में जो हमने तुलनात्मक विवरण दिया है विद्वानों से अपेक्षा है कि वे इसका अध्ययन कर इस सत्य को समझने का प्रयास करेंगे।
ग्रंथकर्ता का काल, ग्रंथ की विषय-वस्तु तथा इस ग्रंथ की गाथाओं का अन्य ग्रंथों में पाया जाना यही सिद्ध करता है कि 'देवेन्द्रस्तव' का रचना काल ईस्वीपूर्व प्रथम शताब्दी के लगभग ही रहा होगा ।
इस कालनिर्णय के प्रसंग में विषय-वस्तु संबंधी विवरण में एक ही आपत्ति प्रस्तुत की जा सकती है, वह यह कि 'देवेन्द्रस्तव' में सिद्धों के स्वरूप संबंधी जो गाथाएँ हैं उनमें एक गाथा में केवली को दर्शन और ज्ञान क्रमपूर्वक ही होता है, युगपद् नहीं, यह मान्यता सिद्ध की गई है । केवली के दर्शन और ज्ञान के क्रमपूर्वक और युगपद् होने के प्रश्न को लेकर जैन परंपरा में महत्वपूर्ण विवाद रहा है। जहाँ आगमिक परंपरा दर्शन और ज्ञान को क्रमपूर्वक ही मानती है, दिगम्बर परंपरा उन्हें युगपद् मानती है । इस विवाद को समन्वित करने का प्रयत्न आचार्य सिद्धसेन ने सर्वप्रथम अपने ग्रंथ “सन्मतितर्क” में किया था । 'देवेन्द्रस्तव' के कर्ता ने बलपूर्वक यह बात कही है कि केवली को दर्शन और ज्ञान क्रमपूर्वक ही होता है। इससे ऐसा लगता है कि उसके सामने अन्य मान्यता भी प्रस्तुत रही होगी। परंतु अगर उसके सामने अन्य मान्यता रही होती,