SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ____13 ऋषिपालित का काल - उपर्युक्त गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार ऋषिपालित का क्रम भगवान् महावीर से बारहवाँ आता है अर्थात् इन दोनों के बीच दस आचार्य हुए हैं। यदि हम प्रत्येक आचार्य का काल 30 वर्ष भी स्वीकार करें तो ऋषिपालित लगभग वीर निर्वाण सं. 300 के आसपास तो हुए ही होंगे। इस गुरु शिष्य परंपरा में आर्य सुहस्ति से आर्य ऋषिपालित का क्रम पाँचवां आता है अतः यह मानना होगा कि आर्य ऋषि पालित सम्प्रति से लगभग 100 वर्ष पश्चात् हुए होंगे। सम्प्रति काशासन काल ईस्वी पूर्व 107 के लगभग स्वीकृत होता है। अतः ऋषिपालित ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध में जीवित रहे होंगे और और तभी उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की होगी। अतः ‘देविदत्थओ' का रचनाकाल लगभग ई. पू. प्रथम शताब्दी निश्चित होता है। __यहाँ इस प्रश्न पर भी विचार करना आवश्यक है कि देवेन्द्रस्तव' को ईस्वी पूर्व प्रथमशताब्दी की रचनामानने में क्या बाधाएँ आसकती है, इस संदर्भ में हमको इसकी भाषा शैली और विषय-वस्तु की दृष्टि से विचार करना होगा। जहाँ तक देवेन्द्रस्तव' की भाषा का प्रश्न है, यह सत्य है कि उस पर महाराष्टी प्राकृत का प्रभाव परिलक्षित होता है, किन्तु महाराष्टी का ऐसा प्रभाव तो हमें ऋषिभाषित जैसे प्राचीनस्तर के प्रकीर्णक पर तथा अचारांग (प्रथम श्रुतस्कन्ध), उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन आगम ग्रंथों में भी मिलता है। वास्तविकता यह है कि श्रुत के शताब्दियों तक मौखिक बने रहने के कारण इस प्रकार के भाषिक परिवर्तन उसमें आही गये हैं। साथ ही अभी भी कुछ प्राचीन प्रतों में प्राचीन अर्धमागधी के पाठान्तर उपलब्ध हो जाते हैं। अतः महाराष्टी प्राकृत के प्रभाव के आधार पर इसे परिवर्ती काल की रचना नहीं कहा जा सकता है। पुनः प्रश्नव्याकरण, आदि कुछ आगमों की अपेक्षा इसकी भाषा में प्राचीनता के तत्त्वपरिलक्षित होते हैं। __ शैली- यदि हम शैली की दृष्टि से विचार करें तो देवेन्द्रस्तव' की शैली समस्त आगमग्रंथों से भिन्न है।आगम ग्रंथों की प्राचीन शैली में निम्न वाक्यांश से प्रारंभ किया जाता है “सुयं मे आउसं ! तेण भगवया एवमक्खायं" हे आयुष्मन् ! मैंने सुना है उन भगवान ने यह कहा है। दूसरे कुछ परवर्ती स्तर के आगमों में प्रारंभ में आर्य सुधर्मा से जम्बू जिज्ञासा प्रकट करते हैं और आर्य सुधर्मा, गौतम और महावीर के संवाद के रूप में आगम की विषयवस्तु का विवेचन करते हैं । स्तुतिपूर्वक गाथाओं के पश्चात्
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy