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________________ 156 138)। आगे पूर्वादि दिशाओं के अनुक्रम से चार-चार शिखरों का उल्लेख करते हुए कहा है कि इन शिखरों पर डेढ़ पल्योपम काय स्थिति वाली दिशाकुमारियाँ रहती है (139-142)। ग्रंथ में पूर्वादि दिशाओं के अनुक्रम से चारों दिशाओं में चार दिग्रहस्ति शिखर तथा उन पर डेढ़ पल्योपम काय - स्थिति वाले दिग्रहस्ति देव कहे गये हैं (143144)। आगे की गाथाओं में पूर्वादि दिशाओं के अनुक्रम से चारों दिशाओं में चार शिखर कहे गये हैं, उन शिखरों को सविशेष पल्योपम काय-स्थिति वाली विद्युतकुमारी देवियोंकेमाने हैं (145-148)। ___ग्रंथ में उल्लेख है कि रुचक पर्वत के बाहर आठ लाख चौरासी हजार योजन चलने पर रतिकर पर्वत आते हैं। इन रतिकर पर्वतों को शक्र, ईशान और सामानिक देवों के उत्पाद पर्वत माना गया है। उत्पाद पर्वत की चारों दिशाओं में जम्बूद्वीप के समान लम्बाई-चौड़ाई वाली चार राजधानियाँ कही गई हैं (149-155)। ग्रंथ में जम्बूद्वीप आदि द्वीप-समुद्रों तथा मानुषोत्तर पर्वत पर दो-दो, एवं रुचक पर्वत पर तीन अधिपति देव माने हैं। इनके पश्चात् स्थित अन्य द्वीप-समुद्रों में उनके समान नाम वाले अधिपति देव माने गये हैं। पुनः यह भी कहा गया है कि एक समान नाम वाले असंख्य देव होते हैं (156-163) । वासों, द्रहों, वर्षधर पर्वतों, महानदियों, द्वीपों और समुद्रों के अधिपति देव एक पल्योपम कायस्थिति वाले कहे गए हैं। आगे यह भी उल्लिखित है कि द्वीपाधिपति देवों को उत्पत्ति द्वीप के मध्य में तथा समुद्राधिपति देवों की उत्पत्ति विशेष क्रीड़ा-द्वीपों में होती है (164-165)। रुचक समुद्र में असंख्यात् द्वीप-समुद्र हैं। रुचक समुद्र में पहले अरुण-द्वीप और उसके बाद अरुण समुद्र आता है। अरुण समुद्र में दक्षिण दिशा की ओर तिगिच्छि पर्वत माना गया है। तिगिच्छि पर्वत का विस्तार एवं परिधि अधोभाग तथा शिखर-तल पर अधिक किन्तु मध्यभाग में कम बतलाई गई है। यद्यपि पर्वत के संदर्भ में ऐसी कल्पना करना उचित नहीं है कि उसकी अधोभाग तथा शिखर-तल की परिधि एवं विस्तार अधिक हो तथा उसकी मध्यवर्ती परिधि एवं विस्तार कम हो, किन्तु ग्रंथ में आगे यह भी कहा गया है कि तिगिच्छि पर्वत का मध्यवर्ती भाग उत्तम वज्र जैसा है (166-171)। इस आधार पर तिगिच्छि पर्वत का यही आकार बनता है। तिगिच्छि पर्वत को रत्नमय, पद्यवेदिकाओं, वनखण्डों तथा अशोक वृक्षों से घिरा हुआ कहा है (172-173)।
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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