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इसका अर्थ देवेन्द्र की स्तुति न होकर देवेन्द्रों के द्वारा की गयी स्तुति ही माना जाना चाहिए। यदि इसे देवेन्द्रों की स्तुति मनना हो, तो यह केवल विवरणात्मक स्तुति है। देवेन्द्रस्तवके कर्ता
देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में हमें ऋषिपालित का नाम उपलब्ध होत है। मुनि श्री पुण्यविजयजी द्वारा सम्पादित एवं महावीर विद्यालय बम्बई से प्रकाशित संस्करण में इस प्रकीर्णक के प्रारंभ में ही सिरिइसिवालियथेरविरइओ' ऐसा स्पष्ट उल्लेख है, मात्र यही नहीं उसकी गाथा क्रमांक 309-310 में भी कर्ता का निम्न रूप में निर्देश उपलब्ध है।
(अ) “इसिवालियमइमहिया करति जिणवराणं"। (ब) “इसिवालियस्सभइंसुरवस्थयकारयस्स वीरस्स"। इसमें ऋषिपालित को स्तुतिकर्ता के रूप स्पष्ट रूप से उल्लिखित किया गया है, अतः ग्रंथ के आंतरिक एवं बाह्य साक्षों से यह फलित होता है कि इसके कर्ता ऋषिपालित हैं । यद्यपि डॉ. जगदीशचन्द्र जैन ने अपने प्राकृत साहित्य के इतिहास' में तथा देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने जैन आगम-साहित्य मनन और मीमांसा' में इसके कर्ता के रूप में वीरभद्र का उल्लेख किया है, किन्तु दोनों ने इसके कर्ता वीरभद्र को मानने का कोई प्रमाण नहीं दिया जाता है। संभवतः चउसरण, आउरपच्चक्खाण, भत्तपरिण्णा, और आराधनापताका आदि कुछ प्रकीर्णकों के कर्ता के रूप में वीरभ्रद का नाम प्रसिद्ध था, इसी भ्रमवश जगदीशचन्द्रजी ने देवेन्द्रस्तव के कर्ता के रूप में वीरभद्र का उल्लेख कर दिया होगा। उन्होंने मूलग्रंथ की अंतिम गाथाओं को देखने का भी प्रयास नहीं किया। देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने तो अपना ग्रंथ जगदीश चन्द्र जैन एवं नेमिचन्द्र शास्त्री के प्राकृत साहित्य के इतिहास ग्रंथों को ही आधार बनाकर लिखा है इसलिए उन्होंने भी मूल ग्रंथ की गाथाओं को देखने का कोई कष्ट नहीं किया। अतः उनसे भी यह भ्रांति होना स्वाभाविक ही था । पार्श्वनाथ विद्याश्रम वाराणसी से प्रकाशित जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग-2 में डॉ. मोहनलालजी मेहता ने और श्रीजैन प्रवचन किरणावली के लेखक आचार्य विजय पद्मसूरिने इसग्रंथ की विषयवस्तु
1. (क) प्राकृत साहित्य का इतिहास- डॉ.जगदीशचन्द्र जैन, पृ.128
(ख) जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा-देवेन्द्रमुनिशास्त्री पृ. 400