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________________ 151 दोनों की मान्यताओं का उल्लेख हुआ। इसी प्रकार महावीर के निर्वाणकाल को लेकर भी जो विभिन्न मान्यताएँ थीं, उनका उल्लेख भी इस ग्रंथ में हुआ है। इससे यही फलित होता है कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति के रचनाकाल तक सम्प्रदायगत तात्त्विक मान्यताएँ सुनिश्चित और सुस्थापित नहीं हो पाती थी। यद्यपि त्रिलोकप्रज्ञप्ति में पर्याप्त प्रक्षिप्त अंश भी है फिर भी इसमें संदेह नहीं किया जा सकता कि वह मूल ग्रंथ प्राचीन है। सामान्यतः विद्वानों ने त्रिलोकप्रज्ञप्ति का काल वीर निर्वाण के 1 000 हजार वर्ष पश्चात् ही निश्चित किया है क्योंकि उस अवधि के राजाओं के राज्यपाल का उल्लेख इस ग्रंथ में मिलता है। त्रिलोकप्रज्ञप्ति का रचनाकाल 6ठीं शताब्दी से 11वीं शताब्दी के मध्य कहीं भी स्वीकार करें, किन्तु इतना निश्चित है कि इसकी अपेक्षा द्वीपसागर प्रज्ञप्ति प्राचीन है क्योंकि इसकी रचना पाँचवींशताब्दी के पूर्व हो चुकीथी। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के उल्लेख हमें स्थानांगसूत्र से लेकर षट्खण्डागम की धवला टीका तक में निरंतर रूप से मिलते हैं। स्थानांगसूत्र और नन्दीसूत्र में उसके उल्लेखों से इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि कम से कम वा.नि.सं. 980 में हुई इन आगम ग्रंथों की अंतिम वाचना के समय तक यह ग्रंथ अवश्य ही अस्तित्व में आ चुका था। अतः द्वीपसागरप्रज्ञप्ति का रचनाकाल वी.नि.सं. 980 और महावीर निर्वाण ईस्वी पूर्व 527 मानने पर ईस्वी सन् 453 अर्थात् ईस्वी सन् की पाँचवीं शती का उत्तरार्द्ध मानना होगा। यह इस ग्रंथ के रचनाकाल की निम्नतम सीमा है, किन्तु इससे पूर्व भी इस ग्रंथ की रचना होना संभव है। क्योंकि स्थानांगसूत्र में हमें सबसे परवर्ती उल्लेख महावीर के संघ में हुए नौ गणों का मिलता है किन्तु ये सभी गण भी ईस्वी सन् की द्वितीय शताब्दी तक अस्तित्व में आ चुके थे। पुनः स्थानांगसूत्र में जिन सात निहवों की चर्चा है, उनमें बोटिक निहव का उल्लेख नहीं है। अंतिम सातवाँ निह्नववी.नि.सं. 584 में हुआथा जबकि बोटियों की उत्पत्ति वी.नि.सं. 609 अथवा उसके पश्चात् बतलाई गई है। बोटिक निह्नव का उल्लेख स्थानांगसूत्र में नहीं होने से यह मान सकते हैं कि स्थानांगसूत्र वी.नि.सं. 609 के पूर्व की रचना है और उस अवधि के पश्चात् उसके कोई प्रक्षेप नहीं हुआ है। ऐसी स्थिति में द्वीपसागरप्रज्ञप्ति कारचनाकाल ईस्वी सन् की प्रथम-द्वितीय शताब्दी भी माना जा सकता है। यह अवधि इस ग्रंथ के रचनाकाल की उच्चतम सीमा है। इस प्रकार द्वीप सागरप्रज्ञप्ति का रचनाकाल ई. सन् 2 शती से 5वीं शती के मध्य ही कहीं निर्धारित होता है।
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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