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में तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार और लोकविभाग में उपलब्ध होती है, इन सभी ग्रंथों में तिलोयपण्णत्ति प्राचीन है । तिलोयपण्णत्ति का आधार संभवतः प्राचीन लोकविभाग ( प्राकृत) रहा होगा, फिर भी आज स्पष्ट प्रमाण के अभाव में यह कहना कठिन है कि द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में तिलोयपण्णत्ति या प्राचीन लोकविभाग आदि ग्रंथ कितने प्रभावित हुए है।
द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और त्रिलोकप्रज्ञप्ति (तिलोयपण्णत्ति) दोनों ही ग्रंथों की विषयवस्तु लगभग समान है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति में जम्बूद्वीप, मनुष्यक्षेत्र, देवलोक, नरक, तीर्थंकर, बलदेव तथा वासुदेव आदि का वर्णन है, जबकि द्वीपसागर प्रज्ञप्ति में मात्र मनुष्य क्षेत्र के बाहर के ही द्वीप - समुद्रों का उल्लेख हुआ है । इस दृष्टि से त्रिलोकप्रज्ञप्ति का विषय क्षेत्र द्वीपसागरप्रज्ञप्ति से व्यापक है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति में द्वीपसागर प्रज्ञप्ति की अपेक्षा अधिक विस्तृत एवं सुव्यवस्थित वितरण उपलब्ध है । अतः त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रंथ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति में की अपेक्षा निश्चय ही परवर्ती है। यद्यपि यह कहना कठिन है कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति की रचना द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के आधार पर हुई है, किन्तु इतना निश्चित है कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रंथ द्वीपसागरप्रज्ञप्ति के पश्चात् रचित है। क्योंकि स्थानांग सूत्र, आदि श्वेताम्बर आगमों और दिगम्बर परंपरा मान्य षट्खण्डागम की धवला टीका में जो प्रज्ञप्तियों का उल्लेख हुआ है उसमें कहीं भी त्रिलोकप्रज्ञप्ति का उल्लेख नहीं हुआ है जबकि द्वीपसागर प्रज्ञप्ति का उल्लेख हुआ है।
त्रिलोकप्रज्ञप्ति का बहुत कुछ अंश दिगम्बर परंपरा के एक सम्प्रदाय के रूप में सुव्यवस्थित होने के पूर्व का है इसमें अनेक स्थलों पर आचार्यों की मान्यता भेद का भी उल्लेख हुआ है। इस संदर्भ में तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ की प्रो. ए. एन. उपाध्ये द्वारा लिखित भूमिका विशेष रूप से दृष्टव्य है। यद्यपि लगभग 5वीं शताब्दी तक श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय इस रूप में जैन परंपरा में विभाजन नहीं हुआ था, किन्तु निर्ग्रथ संघ के भिन्न-भिन्न आचार्य भिन्न-भिन्न मत रखते थे और अध्येताओं को उनका परिचय दे दिया जाता था । यहाँ अधिक विस्तृत चर्चा नहीं करके केवल एक-दो मान्यताओं की ही चर्चा की जा रही है - त्रिलोकप्रज्ञप्ति में देवलोकों की संख्या 12 और 16 मानने वाली
1. लोकविभाग, श्लोक 11 / 51 |