SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 139 कुन्दकुन्द को पर्याप्त रूप से प्राचीन बताने वाला ‘मर्करा अभिलेख' इतिहास के विद्वानों द्वारा जाली प्रमाणित किया जा चुका है।' मर्करा अभिलेख को जालीप्रमाणित करने के पश्चात् नवीं शताब्दी से पूर्व का ऐसा कोई अन्य अभिलेख उपलब्ध नहीं हैं जिसमें कुन्दकुन्द या उनकी अन्वय का उल्लेख हुआ हो । पुनः टीकाओं और व्याख्याओं के युग में हुए कुन्दकुन्द के ग्रंथों पर अमृतचन्द्र (दसवी शताब्दी) के पूर्व किसी अन्य आचार्य के द्वारा टीका का न लिखा जाना भी यह सिद्ध करता है कि कुन्दकुन्द पर्याप्त रूप से परवर्ती है। कुन्दकुन्द के साहित्य में गुणस्थान और सप्तभंगों की स्पष्ट अवधारणा मिलती है कि उससे भी यही निष्कर्ष निकलता है कि कुन्दकुन्द पाँचवीं शताब्दी के बाद के आचार्य हैं, क्योंकि गुणस्थान और सप्तभंगी की स्पष्ट अवधारणा चौथी-पाँचवीं शताब्दी से निर्मित हुई है यह उल्लेख हमने भूमिका के पूर्व पृष्ठों में भी किया है। इस प्रकार कुन्दकुन्द को ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी में ले जाने का प्रयत्न न तो किसी अभिलेखीय साक्ष्य से सिद्ध होता है और न कोई ऐसा साहित्य साक्ष्य ही इस संबंध में उपलब्ध होता है, जो कुन्दकुन्द को प्रथमशताब्दी का प्रमाणित कर सके। कुन्दकुन्द के काल निर्धारण में हम प्रो. मधुसुदन ढाकी से सहमत हैं उनके अनुसार कुन्दकुन्द लगभग छठी शताब्दी के बाद के आचार्य हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि महाप्रत्याख्यान की गाथाएँ भगवती आराधना और मूलाचार से कुन्दकुन्द साहित्य में भी ली गई हैं। ____इस तुलनात्मक अध्ययन में यह प्रश्न भी स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि महाप्रत्याख्यान में उपलब्ध होने वाली समान गाथाएँ आगम एवं नियुक्तियों से इस ग्रंथ में आई है अथवा इस ग्रंथ से ये गाथाएँ आगम एवं नियुक्तियों में गई हैं ? जहाँ तक आगम साहित्य का प्रश्न है तो यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि महाप्रत्याख्यान में उपलब्ध होने वाली चारों समान गाथाएँ इसमें आगम साहित्य से ही ली गई हैं, क्योंकि ये चारों गाथाएँ उत्तराध्ययन सूत्र की हैं और वहाँ वे अपने समुचित स्थान एवं क्रम में हैं। साथ ही उत्तराध्ययन महाप्रत्याख्यान की अपेक्षा प्राचीन भी है, अतः यह निश्चित है किये चारों गाथाएँ उत्तराध्ययन से ही महाप्रत्याख्यान में गई हैं। पुनः इस ग्रंथ में द्वादश Prof.M.A.,DhakyAspects of Jaino, Vol.3, Dalsukh Bhai Malvania felicitation, Vol. 1, Page 196.
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy