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इस तुलनात्मक अध्ययन में हम यह पाते हैं कि महाप्रत्याख्यान की 142 गाथाओं में से 4 गाथाएँ आगम साहित्य में, 8 गाथाएँ निर्युक्तियों में, 8 गाथाएँ भाष्य साहित्य में तथा मरणविभक्ति के अतिरिक्त 60 गाथाएँ अन्य प्रकीर्णकों में भी उपलब्ध होती हैं। जहाँ तक शौरसेनी यापनीय आगम तुल्य साहित्य का प्रश्न है, महाप्रत्याख्यान की लगभग 45 गाथाएँ मूलाचार और भगवती आराधना में भी उपलब्ध होती है । यापनीय साहित्य के प्रमुख ग्रंथ मूलाचार और भगवती आराधना में हम देखते हैं कि इनमें महाप्रत्याख्यान ही नहीं अपितु अनेकानेक प्रकीर्णकों की गाथाएँ शौरसेणी और अर्द्धमागधी भाषायी रूपान्तरण को छोड़कर यथावत् रूप से आत्मसात कर ली गई हैं । मूलाचार में आवश्यक निर्युक्ति की अधिकांश गाथाएँ तथा समग्र आतुर प्रत्याख्यान को समाहित कर लिया जाना, यही सूचित करता है कि प्रारंभ में यापनीय परंपरा को प्रकीर्णक साहित्य मान्य था, किन्तु परवर्ती काल में जब प्रकीर्णक साहित्य एवं नियुक्ति साहित्य की गाथाओं के आधार पर मूलाचार और भगवती आराधना जैसे ग्रंथों की रचना हो गई तो उस परंपरा में प्रकीर्णकों और नियुक्तियों के अध्ययन की परंपरा भी विलुप्त हो गई। दिगम्बर साहित्य में ही हमें एक ऐसी भी गाथा उपलब्ध होती है जिसमें कहा गया है कि आचारांग आदि अंग ग्रंथ एवं पूर्व प्रकीर्णक जिनेन्द्र देवों द्वारा प्ररुपित हैं । '
चाहे प्रत्यक्ष रूप में हो अथवा यापनीय साहित्य मूलाचार और भगवती आराधना के माध्यम से हो, प्रकीर्णक साहित्य की अनेक गाथाएँ कुन्दकुन्द के साहित्य में भी उपलब्ध होती है। अकेले महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक की 9 गाथाएँ कुन्दकुन्द के विभिन्न ग्रंथों में उपलब्ध हो जाती हैं। भगवती आराधना और मूलाचार में इन गाथाओं की उपस्थिति में ऐसा प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्द के ग्रंथों में ये गाथाएँ भगवती आराधना और मूलाचार से ही अनुस्यूत हुई है। यहां यह प्रश्न किया जा सकता है कि क्या यह संभव नहीं है कि कुन्दकुन्द साहित्य से ही ये गाथाएँ प्रकीर्णकों में गई हो ? इस प्रश्न का सीधा और स्पष्ट उत्तर यही है कि अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध हो चुका है कि कुन्दकुन्द छठीं शताब्दी से पूर्व में आचार्य नहीं हैं ।
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" आयारादी अंगा पुव्व पइण्णा जिणेहि पण्णत्ता । जे जे विराहिया खलु मिच्छा में दुक्कडं हुज्जं ।'
- सिद्धान्तसारादिसंग्रह - कल्लाणालोयणा, गाथा 28
(माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, बम्बई)