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इसके साथ ही यह भी कहा गया कि जो मात्र पार्श्व को प्रणाम करता है, वह भी दुर्गति रूपी दुःख से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार प्रस्तुत स्तोत्र में एक ओर भौतिक कल्याण की अपेक्षा है तो दूसरी ओर आध्यात्मिक पूर्णता की कामना भी । यदि हम चतुर्विंशतिस्तव से इस उवसग्गहर स्तोत्र की तुलना करें तो हमें यह स्पष्ट लगता है कि यद्यपि इसमें आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार के कल्याण की कामना है। फिर भी इतना स्पष्ट है कि चतुर्विशतिस्तव की अपेक्षा उवसग्गहर - स्तोत्र भौतिक कल्याण की कामना में आगे बढ़ा हुआ कदम है। जहां चतुर्विंशतिस्तव में मात्र आरोग्य की कामना की गई है, वहीं इसमें ज्वर शांति, रोगशांति और सर्प - विष से मुक्ति की कामना भी परिलक्षित होती है । इसे एक मंत्र का रूप दिया गया है। जैन साहित्य में स्तोत्रों के माध्यम मंत्र-तंत्र का जो प्रवेश हुआ है, उस दिशा की ओर यह स्तोत्र प्रथम पद - निक्षेप कहा जा सकता है । इस स्तोत्र के कर्ता वरामिहिर के भाई द्वितीय भद्रबाहु को माना गया है।
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इसके पश्चात् प्राकृत, संस्कृत और आगे चलकर मरु-गुर्जर में अनेक स्तोत्र बने, जिनमें ऐहिक सुख-सम्पदा प्रदान करने की भी कामना की गई है। यह चर्चा हमने यहाँ इसलिए प्रस्तुत की है कि जैन परंपरा में स्तुतिपरक साहित्य किस क्रम से और किस रूप में विकसित हुआ है, इसे समझा जा सके । अब हम इस संदर्भ में 'देवेन्द्रस्तव' का मूल्यांकन करेंगे।
जैसा कि हम पूर्व में कह चुके हैं कि 'देवेन्द्रस्तव' को किसकी स्तुति माना जाय, यह निर्णय करना कठिन है। जहाँ इसकी प्रारंभिक एवं अंतिम गाथाएँ तीर्थंकर की स्तुतिरूप है, वहीं इसका शेषभाग इन्द्रो व देवों के विवरणों से भरा हुआ है। इस ग्रंथ की विशेषता यह है कि इसमें किसी प्रकार के भौतिक कल्याण की कामना न तो तीर्थंकरों से और न ही देवेन्द्रों से की गई है। केवल अंतिम गाथा में कहा गया है कि सिद्ध, सिद्धि को प्रदान करे।' इस प्रकार कल्याण कामनापरक स्तुतियों की दृष्टि से तो यह “वीरत्थु " और "नमुत्थुणं" के पश्चात एवं " चतुर्विंशतिस्तव” के पूर्व का सिद्ध होता है। किन्तु इसको चतुर्विंशतिस्तव के पूर्व मानने के संबंध में मुख्य कठिनाई यह है कि इसके ऋषभ
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“सिद्धा सिद्धि उवविहिंतु” - देवेन्द्र - गाथा 310