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'वीरत्थुई' और 'नमुत्थुणं' में एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि जहां इन दोनों में भक्तहृदय अपने आराध्य के गुणों का स्मरण करता है, उससे किसी प्रकार कि लौकिक या आध्यात्मिक अपेक्षा नहीं करता है जबकि “चोवीसत्थव' के पाठ में सर्वप्रथम भक्त अपने कल्याण की कामना के लिए आराध्य से प्रार्थना करता है कि हे तीर्थंकर देवो! आप मुझ पर प्रसन्न हों तथा मुझे आरोग्य, बोधिलाभ तथा सिद्धि प्रदान करे। संभवतः जैन स्तुतिपरक साहित्य में यही सबसे पहले उपासक हृदय याचना की भाषा का प्रयोग करता है। यद्यपिजैनदर्शन की स्पष्टतया यह मान्यता रही है कि तीर्थंकर तो वीतराग है, अतः वे न तो किसी का हित करते हैं और न अहित ही, वे तो मात्र कल्याण पथ के प्रदर्शक हैं। अपने भक्त का हित या उसके शत्रु का अहित संपादित करना उनका कार्य नहीं। लोगस्स' के पाठ को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि उस पर सहवर्ती हिन्दू परंपरा का प्रभाव आया है। लोगस्स के पाठ में आरोग्य, बोधि और निर्वाण इन तीनों बातों की कामना की गयी है। जिसमें आरोग्य का संबंध बहुत कुछ हमारे ऐहिक जीवन के कल्याण के साथ जुड़ा हुआ है । यद्यपि आध्यात्मिक रूप से इसकी व्याख्या आध्यात्मिक विकृतियों के निराकरण रूप में की जाती है तथापि जैन परंपरा के स्तुतिपरक साहित्य में कामना का तत्व प्रविष्ट होता गया है, जो जैन दर्शन के मूलसिद्धांतवीतरागता की अवधारणा के साथसंगति नहीं रखता है।
इसी संदर्भ में आगे चलकर यह माना जाने लगा कि तीर्थंकर की भक्ति से उनके शासन के यक्ष-यक्षी (शासन देवता) प्रसन्न होकर भक्त का कल्याण करते हैं। फिर शासन देवता के रूप में प्रत्येक तीर्थंकर के यक्ष और यक्षी की अवधारणा निर्मित हुई
और उनकी भी स्वतंत्ररूपसे स्तुति की जाने लगी। “उवसग्गहर" प्राकृत साहित्य का संभवतः सबसे पहला तीर्थंकर के साथ-साथ उसके शासन के पक्ष की स्तुति करने वाला काव्य है। इसमें पार्श्व के साथ-साथ पार्श्व पक्ष की भी लक्षणा से स्तुति की गई है। प्रस्तुत स्तोत्र में जहाँ एक ओर पार्श्व से चिंतामणि कल्प के समान सम्यक्त्व-रत्न रूप बोधि और अजर-अमर पद अर्थात् मोक्ष प्रदान करने की कामना की गई है, वहीं यह भी कहा गया है कि कर्ममल से रहित पार्श्व का यह नाम रूपी मन्त्र विषधर के विष का विनाश करने वाला तथा कल्याणकारक है। जो मनुष्य इस मंत्र को धारण करता है उसके ग्रहों के दुष्प्रभाव, रोगऔर ज्वर आदिसे शांत हो जाते हैं।
1. उवसग्गहर स्तोत्र - गाथा 1 से 5 (पंचप्रतिकमणसूत्र)