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स्तुतिपरक जैन साहित्य और देवेन्द्रस्तव प्रकीर्णकः ____ आराध्य की स्तुति करने की परंपरा भारत में प्राचीनकाल से ही रही है। भारतीय साहित्य की अमरनिधि वेद मुख्यतः स्तुतिपरक ग्रंथ है । वेदों के अतिरिक्त भी हिन्दू परंपरा में स्तुतिपरक साहित्य की रचना होती रही है, किन्तु जहाँ तक श्रमण परंपराओं का प्रश्न है वे स्वभावतः अनीश्वरवादी बौद्धिक परंपराएँ हैं। श्रमणधारा के प्राचीन ग्रंथों में हमें साधना या आत्मशोधन की प्रक्रिया पर ही अधिक बल मिलता है, उपासना या . भक्ति का तत्व उनके लिए प्रधान नहीं रहा। जैन धर्म भी श्रमण परंपरा का धर्म है। इसलिए उसकी मूल प्रकृति में स्तुति का कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं है। जब जैन परंपरा में आराध्य के रूप में महावीर को स्वीकार किया गया, तो सबसे पहले उन्हीं की स्तुति लिखीगई, जो कि आजभी सूत्रकृतांगसूत्र के छठे अध्याय के रूप में उपलब्ध होती है। 'संभवतः जैन धर्म के स्तुतिपरक साहित्य का प्रारंभइसी वीरत्थुई से है। वस्तुतः इसे भी स्तुति केवल इसी आधार पर कहा जा सकता है कि इसमें महावीर के गुणों एवं उनके व्यक्तित्व के महत्व को निरुपित किया गया है। इसमें स्तुतिकर्ता महावीर से किसी भी प्रकार की याचना नहीं करता। उसके पश्चात् स्तुतिपरक साहित्य के रचनाक्रम में हमारे विचार से “नमुत्थुणं" जिसे शक्रस्तव' भी कहा जाता है, निर्मित हुआ होगा वस्तुतः यह अर्हत या तीर्थंकर की बिना किसी व्यक्ति विशेष का नाम निर्देश किये सामान्य स्तुति है जहाँ सूत्रकृतांग की वीरत्थुई पद्मात्मक है, वहाँ यह गद्यात्मक है। दूसरी बात यह कि इसमें अर्हन्त को एक लोकोत्तर पुरुष के रूप में ही चित्रित किया गया है, 'वीरस्तुति' में केवल कुछ प्रसंगों को छोड़कर सामान्यतया महावीर को लोक में श्रेष्ठतम व्यक्ति के रूप प्रस्तुत किया गया है, लोकोत्तररूप में नहीं । यद्यपिआचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में वर्णित उनके जीवन वृत्त की अपेक्षा इसमें लोकोत्तर तत्व अवश्य ही प्रविष्ट हुए है। हमें तो ऐसा लगता है कि प्रारंभ में वीरत्थुई' के रूप में पुच्छिसुणं' और 'देविंदथओ' रूप में 'नमोत्थुणं' ही रहे होंगे क्योंकि 'देविंदथओ'का भी एक अर्थ देवेन्द्र के द्वारा की गई स्तुति होता है, ‘नमुत्थुण' को जो शक्रस्तव' कहा जाता है, वह इसी तथ्य की पुष्टि करता है । स्तुतिपरक साहित्य में इन दोनों के पश्चात् 'चतुर्विशतिस्तव' (लोगस्स-चोवीसत्थव) का स्थान आता है। लोगस्स का निर्माण तो चौबीस तीर्थंकरों की अवधारणा के साथ ही हुआहोगा।
1. सूत्रकृतांगसूत्र - मुनि मधुकर, छठा अध्ययन - 'वीरत्थुई'