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परंतु प्रकीर्णक नाम से अर्भिहित इन ग्रंथों का संग्रह किया जाये तो निम्न 22 नाम प्राप्त होते हैं - ( 1 ) चतुःशरण, (2) आतुर प्रत्याख्यान, ( 3 ) भत्तपरिज्ञा ( 4 ) संस्थारक (5) तंदुलवैचारिक (6) चंद्रावेध्यक (7) देवेन्द्रस्तव (8) गणिर्विद्या (9) महाप्रत्याख्यान (10) वीरस्तव ( 11 ) ऋषिभाषित ( 12 ) अजीवकल्प ( 13 ) गच्छाचार (14) मरणसमाधि (15) तित्थोगालि ( 16 ), आराधना पताका (17), द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (18) ज्योतिष्करण्डक ( 19 ) अंगविद्या (20) सिद्धप्राभृत, ( 21 ) सारावली और (22) जीवविभक्ति ।
इसके अतिक्ति एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं । यथा'आउर पच्चक्खान' के नाम से तीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं।
इनमें से नन्दी और पाक्षिक के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में देवेन्द्रस्तव, तंदुलवैचारिक, चन्द्रावेध्यक, गणिविद्या, मरणविभक्ति, मरणसमाधि, महाप्रत्याख्यान, ये सात नाम पाये जाते है और कालिकसूत्रों के वर्ग में ऋषिभाषित और द्वीपसागर प्रज्ञप्ति ये दो नाम पाये जाते हैं।' इस प्रकार नन्दी एवं पाक्षिक सूत्र में नौ प्रकीर्णकों का उल्लेख मिलता है । 'यद्यपि प्रकीर्णकों की संख्या और नामों को लेकर मतभेद देखा जाता है, किन्तु यह सुनिश्चित है कि प्रकीर्णकों के भिन्न-भिन्न सभी वर्गीकरणों में देवेन्द्रस्तव को स्थान मिला ही है ।
यद्यपि आगमों की श्रृंखला में प्रकीर्णकों का स्थान द्वितीयक है, किन्तु यदि हम भाषागत प्राचीनता और आध्यात्म - प्रधान विषय-वस्तु की दृष्टि से विचार करें तो प्रकीर्णक, आगमों की अपेक्षा भी महत्वपूर्ण प्रतीत होते हैं। प्रकीर्णकों में ऋषिभाषित आदि ऐसे प्रकीर्णक है, जो उत्तराध्ययन और दशवैकालिक जैसे प्राचीन स्तर के आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन है ।' अतः 'देवेन्द्रस्तव' का स्थान प्रकीर्णकों में होने से उसका महत्व कम नहीं हो जाता है । फिर भी इतना अवश्य है कि यह प्रकीर्णक अध्यात्मपरक अथवा आचारपरक न होकर स्तुतिपरक है। इसकी विषयवस्तु मुख्यतः देवनिकाय तथा उसके खगोल एवं भूगोल से संबंधित है।
पइण्णयसुत्ताइं - मुनि पुण्यविजयजी प्रस्तावना पृष्ठ 19 ।
1.
2. नन्दीसूत्र मुनि मधुकर पृष्ठ 80-811
3.
ऋषिभाषित की प्राचीनता आदि के संबंध में देखें
डॉ. सागरमल जैन - ऋषिभाषित: एक अध्ययन (प्राकृत भारती संस्थान, जयपुर)