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मूलाचार' आगमों को चार भागों में वर्गीकृत करता है - ( 1 ) तीर्थंकर - कथित (2) प्रत्येक-बुद्ध-कथित, ( 3 ) श्रुतकेवली - कथित (4) पूर्वधर - कथित । पुनः मूलाचार में इन आगमिक ग्रंथों का कालिक और उत्कालिक के रूप में भी वर्गीकरण किया गया है। मूलाचार में आगमों के इस वर्गीकरण में 'थुदि' का उल्लेख उत्कालिक आगमों में हुआ है। आज यह कहना तो कठिन है कि 'थुदि' से वे वीरत्थुई या देविदत्थओ में से किसका ग्रहण करते थे । इस प्रकार अर्द्धमागधी और शोरसेनी दोनों की आगम परम्पराएँ एक उत्कालिक सूत्र के रूप में स्तव या देवेन्द्रस्तव का उल्लेख करती है।
वर्तमान में आगमों के अंग, उपांग, छेद, मूलसूत्र, प्रकीर्णक आदि विभाग किये जाते है। यह विभागीकरण हमें सर्वप्रथम विधिमार्गप्रपा (जिनप्रभ) ' 13वीं शताब्दी) में प्राप्त होता है।' सामान्यतया प्रकीर्णक का अर्थ विविध विषयों पर संकलित ग्रंथ ही किया जाता है । नन्दीसूत्र के टीकाकार मलयगिरि ने लिखा है कि तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रवण प्रकीर्णकों की रचना करते थे । परंपरानुसार यह भी मान्यहै कि प्रत्येक श्रमण एक-एक प्रकीर्णक की रचना करते थे । समवायांग सूत्र में “चोरासीइं पण्णग सहस्साइं पण्णत्ता" कहकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों के चौरासी हजार प्रकीर्णकों का उल्लेख किया है। महावीर के तीर्थ में चौदह हजार साधुओं का उल्लेख प्राप्त होता है अतः उनके तीर्थ में प्रकीर्णकों की संख्या भी चौदह हजार मानी गई है । किन्तु आज प्रकीर्णकों की संख्या दस मानी जाती है । ये दस प्रकीर्णक निम्न है
(1) चतुःशरण, (2) आतुरप्रत्याख्यान, ( 3 ) महाप्रत्याख्यान (4) भत्तपरिज्ञा (5) तंदुलवैचारिक (6) संस्थारक (7) गच्छाचार (8) गणिविद्या ( 9 ) देवेन्द्रस्तव और (10) मरण समाधि। इन दस प्रकीर्णकों को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय आगमों को श्रेणी में मानते हैं।
1. मूलाचार - 5 / 80-821
2. विधिमार्ग प्रपा - पृष्ठ 551
3. समवायांग सूत्र - मुनि मधुकर 84वाँ समवाय
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