________________
__103 पाया हूँ, उस सबकी निन्दा करता हूँ (12)। - आत्म विषयक निरुपण करते हुए कहा गया है कि आत्मा ही व्यक्ति की स्व (अपनी) है, शेष समस्त पदार्थ उसके नहीं होकर पर (बाह्य) हैं। साथ ही दुःख परंपरा के कारण संयोग संबंधों को त्रिविध रूप से त्याग करने का उपदेश है (13-17)। निन्दा , गर्दा और आलोचना किसकी की जाए, इसके विषय में कहा गया है कि असंयम, अज्ञान और मिथ्यात्त्व आदि की निन्दा और गर्दा तथा ज्ञात-अज्ञात सभी प्रकार के अपराधों की आलोचना करनी चाहिए (18-20)। माया के विषय में कहा गया है कि वह अपनाने के लिए नहीं वरन् त्यागने के लिए होती है। साधु को अपने समस्त दोषों की आलोचना माया एवंमद त्यागकर करनी चाहिए। (21-23)।
कौन जीव सिद्ध होता है ? इस विषयक निरूपण करते हुए कहा गया है कि वही जीव सिद्ध होता है, जिसने माया आदि तीन शल्यों का मोचन कर दिया हो। मिथ्या, माया और निदान इन तीनों शल्यों को अनिष्टकारी बतलाते हुए कहा है कि समाधिकाल में यदि ये शल्य मन में उपस्थित रहते हैं तो बोधि की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है, परिणामस्वरूप जीव अनन्तसंसारी हो जाता है। इसलिए सजग साधक पुनर्जन्म से बचने के लिए इनशल्यों को हृदय से निकाल फेंकता है (24-29)।
इसमें शिष्य के लिए यह उपदेश है कि उसे अपने द्वारा किये गये सभी कार्यअकार्य को गुरु के समक्ष यथारूप कह देना चाहिए और फिर गुरु जो प्रायश्चित दे, उसका अनुसरण करना चाहिए (30-32)।
___ सभी प्रकार की प्राण-हिंसा, असत्यवचन, अदत्तग्रहण, अब्रह्मचर्य और परिग्रह को मन, वचन व काया से त्यागने का भी निर्देश है। लोक में योनियों के चौरासी लाख मुख्य भेद बतलाते हुए कहा है किजीव प्रत्येक योनि में अनंत बार उत्पन्न होता है (33-40)
. पण्डितमरण को प्रशंसनीय बताते हुए कहा गया है कि माता-पिता, भाईबहिन, पुत्र-पुत्री ये सभी न तो किसी के रक्षणकर्ता है और न ही त्राणदाता । जीव अकेला ही कर्म करता है और उसके फल को भी अकेला ही भोगता है। व्यक्ति को चाहिए कि वह नरक-लोक, तिर्यंच-लोक और मनुष्य-लोक में जो वेदनाएँ हैं उन्हें तथा देवलोक में जो मृत्यु है, उन सबका स्मरण करते हुए पण्डितमरण पूर्वक करे। क्योंकि एक पण्डितमरण सैकड़ों भव- परंपरा का अंत कर देता है (41-50)।
सचित्त आहार, विषयसुख एवं परिग्रह आदि की विशेष चर्चा करते हुए इन्हें