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हमने अपने एक स्वतंत्र निबंध में गुणस्थान की विकसित अवधारणा का काल तत्त्वार्थभाष्य के पश्चात् अर्थात् तीसरी शताब्दी के बाद और सर्वार्थसिद्धिटीका के पूर्व अर्थात् पाँचवीं-छठीं शताब्दी के पूर्व माना है। इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि गुणस्थान की अवधारणा लगभग पाँचवीं शताब्दी के आसपास कभी पूर्णतः विकसित हुई है। इससे भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि महाप्रत्याख्यान चौथी शताब्दी के पूर्व की रचना है। निष्कर्ष रूप में यही कहा जा सकता है कि महाप्रत्याख्यान दूसरीसे चौथी शताब्दी के मध्य कभी निर्मित हुआ है। विषयवस्तु
महाप्रत्याख्यान में कुल 142 गाथाएँ हैं, जिनमें निम्नलिखित विषय वस्तु का विवरण उपलब्ध होता है
ग्रंथ का प्रारंभ मंगलाचरण से करते हुए सर्वप्रथम तीर्थंकरों, जिनदेवों, सिद्धों और संयमियों को प्रणाम किया गया है। तत्पश्चात् बाह्य एवं अभ्यन्तर समस्त प्रकार की उपधिका मन, वचन एवं काया-तीनों प्रकार के त्याग करने का कथन है (1-5)।
समस्त जीवों के प्रति समताभाव का कथन करते हुए कहा गया है कि सभी जीवों को मैं क्षमा करता हूँ और समस्त जीव मुझे क्षमा करे। साथ ही निंदा करने योग्य कर्म की निंदा, गर्दा करने योग्य कर्म की गर्दा और आलोचना करने योग्य कर्म की आलोचना करने का भी कथन है (6-8)।
इसमें व्यक्ति को यह प्रेरणा दी गई है कि ममत्व के स्वरूप को जानकर निर्ममत्व में स्थिररहे।आत्मा के विषय में कहा गया है कि आत्माही प्रत्याख्यान है तथा संयम व योग भी आत्मा ही है (9-11)। अग्रिम गाथा में मूलगुणों और उत्तरगुणों की सम्यक् परिपालन नहीं करने की निंदा की गई है। उपाचार्यश्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री ने अपने ग्रंथ 'जैन आगम साहित्य मनन और मीमांसा' में महाप्रत्याख्यान की विषयवस्तु का वर्णन करते हुए इस गाथा का अर्थ इस प्रकार है- “साधक को मूलगुण और उत्तरगुणों का प्रतिक्रमण करना चाहिए।" मूलग्रंथ को देखने से ज्ञात होता है कि वहाँ मूलगुणों और उत्तरगुणों का प्रतिक्रमण करने के लिए नहीं कहा गया है वरन् वहाँ तो स्पष्ट लिखा है कि प्रमाद के द्वारा मूलगुणों और उत्तरगुणों में जिन (गुणों) की मैं जोआराधना नहीं कर ................................ 1.श्रमण (जनवरी-मार्च 1992) 2.जैन आगमसाहित्य मनन और मीमांसा, पृष्ठ 390।