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दिवाकर समन्तभद्र से पूर्ववर्ती है। अतः, सिद्धसेन की कृतियों की समन्तभद्र की कृतियों में समरूपता दिखाई देने के आधार पर यह अनुमान कर लेना उचित नहीं होगा कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति नहीं है। समन्तभद्र ने जब सिद्धसेन के सन्मतितर्क से आप्तमीमांसा में अनेक श्लोकों को ग्रहण किया है, तो यह भी संभव है कि उन्होंने रत्नकरण्डकश्रावकाचार (जिसका समन्तभद्रकृत होना भी विवादास्पद है) में भी सिद्धसेन के न्यायावतार से कुछ श्लोक अभिगृहीत किये हों।
पुनः, जब न्यायावतार का दूसरा व चौथा पूरा का पूरा श्लोक याकनीसूनु हरिभद्र के अष्टकप्रकरण और षड्दर्शनसमुच्चय में पाया जाता है, तो फिर न्यायावतार को हरिभद्र के बाद होने वाले सिद्धर्थिकी वृत्ति कैसे माना जा सकता है ? इससे यह स्पष्ट है कि न्यायावतार की रचना हरिभद्र से पूर्व हो चुकी थी फिर इसे सिद्धर्षि की कृति कैसे माना जा सकता है ? अतः डॉ. पाण्डेय और प्रो. ढाकी का यह मानना कि न्यायावतार मूल सिद्धर्षि की कृति है, किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है। अपने पक्ष के बचाव में डॉ. पाण्डेय का यह तर्क कि ये श्लोक सिद्धसेन की लुप्त प्रमाण द्वात्रिंशिका के हों, अधिक वजनदार नहीं लगता है। जब न्यायावतार के ये श्लोक स्पष्ट रूप से हरिभद्र के अष्टकप्रकरणऔर षट्दर्शन समुच्चय से मिल रहे हों, तो फिर द्राविड़ी प्राणायाम के द्वारा यह कल्पना करना कि वे किसी लुप्त प्रमाणद्वात्रिंशिका के श्लोक होंगे, युक्तिसंगत नहीं है। जब सिद्धसेन के इस न्यायावतार में अभी 32 श्लोक हैं, तो फिर संभव यह भी है कि इसका ही अपर नाम प्रमाणद्वात्रिंशिका हो? पुनः, जब हरिभद्र के द्वारा न्यायावतार पर वृत्ति लिखे जाने पर स्पष्ट सूचनाएं प्राप्त हो रही हैं, तो फिर यह कल्पना करना कि वे हरिभद्र प्रथम नहोकर कोई दूसरे हरिभद्र होंगे, मुझे उचित नहीं लगता। जब यकिनीसूनु हरिभद्र न्यायावतार की कारिका अपने ग्रंथों में उद्धृत कररहे हैं, तो यह मानने में क्या बाधा है कि वृत्तिकारभीवेही हों? . न्यायावतार की विषयवस्तु से यह स्पष्ट है कि वह जैन प्रमाणशास्त्र की आद्य रचना है। उसमें अकलंक के काल में विकसित तीन प्रमाणों, यथा-स्मृति, प्रत्यभिज्ञा
और तर्क या ऊह का उपलब्ध नहीं होना तथा आगमिक तीन प्रमाणों की सूचना प्राप्त होना यही प्रमाणित करता है कि वह अकलंक (8वीं शती) से पूर्व का ग्रंथ है। सिद्धर्षि का काल अकलंक से परवर्ती है और उन्होंने अपने न्यायावतार की वृत्ति में स्पष्टतः इन प्रमाणों की चर्चा की है, जबकि आठवीं शती तक के किसी श्वेताम्बर आचार्य में