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प्रत्यक्षं स्व सत्प्रकाशाभ्रान्तोऽर्थ ज्ञातव्य है कि असङ्ग वसुबन्धु के बड़ेभाई थे और इनका काल लगभग तीसरीचौथी शताब्दी है। अतः, सिद्धसेन दिवाकर की कृति न्यायावतार में अभ्रान्त पद को देखकर उसे न तो परवर्ती माना जा सकता है और न यह माना जा सकता है कि वह धर्मकीर्ति से परवर्ती किसी अन्य सिद्धसेन की कृति है। यदि बौद्ध न्याय में अभ्रान्त पद का उल्लेख तीसरी-चौथी शताब्दी के ग्रन्थों में उपलब्ध है, तो फिर न्यायावतार (चतुर्थ-शती) में अभ्रान्त पद का प्रयोग अस्वाभाविक नहीं माना जा सकता है। डॉ. पाण्डेय ने भी अपनी इस कृति में इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है, फिर भी वे न्यायावतारको सिद्धसेन की कृति मानने में संकोच कर रहे हैं?
___ उनका दूसरा तर्क यह है कि न्यायावतार की अनुमान प्रमाण की परिभाषा पर दिगम्बर विद्वान् पात्र केसरी का प्रभाव है। उनके अनुसार, न्यायावतार की 22वीं कारिका का पात्र केसरी की विलक्षण कदर्थन की कारिका से आंशिक साम्य है, लेकिन इस आधार पर यह मानना की पात्र केसरी (7वीं शती) का प्रभाव न्यायावतार पर है, मुझे तर्कसंगत नहीं जान पड़ता, क्योंकि इसके विपरीत यह भी तो माना जा सकता है कि सिद्धसेन दिवाकर काही अनुसरणपात्र केसरी ने किया है।
तीसरे, जब न्यायावतार के वार्तिक में शान्तिसूरि स्पष्ट रूप से 'सिद्धसेनार्क सूत्रितम्' (न्यायावतार वार्तिक- 1/1) ऐसा स्पष्ट उल्लेख करते हैं, तो फिर यह संदेह कैसे किया जा सकता है कि न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर पदवी वाले सिद्धसेन नहीं हैं। यदि न्यायावतार सिद्धर्षि की कृति होती, तो वार्तिककार शान्त्याचार्य, जो उनसे लगभग दो सौ वर्ष पश्चात् हुए हैं, यह उल्लेख अवश्य करते। उनके द्वारा सिद्धसेन के लिए अर्क' विशेषण का प्रयोग यही सिद्ध करता है कि न्यायावतार के कर्ता अन्य कोई सिद्धसेन न होकर सिद्धसेन दिवाकर ही हैं, क्योंकि अर्क का मतलब स्पष्ट रूप से दिवाकर (सूर्य) ही है।
उन्हें न्यायावतार की कारिकाओं की समन्तभद्र की कारिकाओं में समरूपता दिखाई देने परभीन्यायावतारको सिद्धसेन दिवाकरकृत मानने पर बाधा नहीं आती, क्योंकि समन्तभद्र की आप्तमीमांसा आदि कृतियों में सिद्धसेन के सन्मतितर्क का स्पष्ट प्रभाव देखा जाता है। इनमें न केवल भावगत समानता है, अपितु प्राकृत और संस्कृत के शब्द रूपों को छोड़कर भाषागत भी समानता है और यह निश्चित है कि सिद्धसेन