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न्यायावतार, सन्मतिसूत्र के कर्त्ता सिद्धसेन की कृति है या नहीं, यह एक विवादास्पद प्रश्न है । इस संदर्भ में श्वेताम्बर विद्वान् भी मतैक्य नहीं रखते हैं। पं. सुखलालजी,पं. बेचरदासजी एवं पं. दलसुख मालवणिया ने न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति माना है, किन्तु एम. ए. ढाकी आदि कुछ श्वेताम्बर विद्वान् उनसे मतभेद रखते हुए उसे सिद्धर्षि की कृति मानते हैं। " डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय ने ! प्रस्तुत कृति में इस प्रश्न की विस्तृत समीक्षा की है तथा प्रो. ढाकी के मत का समर्थन करते हुए न्यायावतार को सिद्धसेन दिवाकर की कृति न मानते हुए इसे सिद्धर्षि की कृति माना है, किन्तु कुछ तार्किक आधारों पर मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह है कि न्यायावतार भी सिद्धसेन की कृति है । प्रथम तो यह कि न्यायावतार भी एक द्वित्रिंशिका है और सिद्धसेन ने स्तुतियों के रूप में द्वित्रिंशिकाएं ही लिखी हैं। उनके परवर्ती आचार्य हरिभद्र ने अष्टक, षोडशक एवं विशिंकाएं तो लिर्खी, किन्तु द्वात्रिंशिका नहीं लिखी। दूसरे, न्यायावतार में आगम युग के प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम- इन तीन प्रमाणों की ही चर्चा हुई है, दर्शन युग में विकसित जैन परंपरा में मान्य स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क की प्रमाण के रूप में मूल ग्रंथ में कोई चर्चा नहीं है, जबकि परवर्ती सभी श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आचार्य एवं न्यायावतार के टीकाकार सिद्धर्षि स्वयं भी इन प्रमाणों की चर्चा करते हैं । यदि सिद्धर्षि स्वयं ही इसके कर्त्ता होते तो कम से कम एक कारिका बनाकर इन तीनों प्रमाणों का उल्लेख तो मूलग्रंथ में अवश्य करते । पुनः, सिद्धर्षि की टीका में एक भी ऐसे लक्षण नहीं मिलते हैं, जिससे वह स्वोपज्ञ सिद्ध होती है। इस कृति में कहीं भी उत्तम पुरुष के प्रयोग नहीं मिलते। यदि यह उनकी स्वोपज्ञ टीका होती, तो इससे उत्तम पुरुष के कुछ तो प्रयोग मिलते।
प्रत्यक्ष की परिभाषा में प्रयुक्त 'अभ्रान्त' पद तथा समन्तभद्र के रत्नकरण्डक श्रावकाचार के जिस श्लोक को लेकर यह शंका की जाती है कि न्यायावतार सिद्धसेन दिवाकर की कृति नहीं है - अन्यथा वे धर्मकीर्त्ति और समन्तभद्र के परवर्ती सिद्ध होंगे। प्रथम तो यही निश्चित नहीं है कि रत्नकरण्डक श्रावकाचार समन्तभद्र की कृति है या नहीं । उसमें जहाँ तक ‘अभ्रान्त' पद का प्रश्न है, प्रो. टूची के अनुसार यह धर्मकीर्ति
पूर्व भी बौद्धन्याय में प्रचलित था । अनुशीलन करने पर असंग के गुरु मैत्रेय की कृतियों में एवं स्वयं असंग की कृति अभिधर्म समुच्चय में प्रत्यक्ष की परिभाषा में ‘अभ्रान्त’ पद का प्रयोग हुआ। अभिधर्म समुच्चय में असंग स्वयं लिखते हैं
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