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हुए यह बताया है कि कोटमुडुवगण में मुख्य पुष्याहनन्दि गच्छ के गणधर के सदृश जिननन्दी मुनीश्वर हुए हैं। उनके शिष्य पृथ्वी पर विख्यात केवलज्ञान निधि के धारक स्वयं जिनेन्द्र के सदृश दिवाकर नाम के मुनि हुए। यह सत्य है कि यह कोटिमुडुवगण यापनीय है, किन्तु इस अभिलेख में उल्लेखित दिवाकर सिद्धसेन दिवाकर है, यह कहना कठिन है, क्योंकि इसमें इन दिवाकर के शिष्य श्री मंदिर देवमुनि का उल्लेख है, जिनके द्वारा अधिष्ठित कंटकाभरण नामक जिनालय को यह दान दिया गया था। यदि दिवाकर मंदिरदेव के गुरु हैं, तो वे सिद्धसेन दिवाकर न होकर अन्य कोई दिवाकर हैं, क्योंकि इस अभिलेख के अनुसार मंदिरदेव का काल ईस्वी 942 अर्थात् वि.सं. 999 है। इनके गुरु इनमें 50 वर्ष पूर्व भी माने जाएं तो वे दसवीं शताब्दी उत्तरार्द्ध में ही सिद्ध होंगे, जबकि सिद्धसेन दिवाकर तो किसी भी स्थिति में पाँचवीं शती से परवर्ती नहीं हैं। अतः, वेदिवाकर सिद्धसेन नहीं हो सकते हैं। दोनों के काल में लगभग 600 वर्षकाअंतर है।यदिइसमें उल्लेखित दिवाकर को मंदिर देव कासाक्षात् गुरु नमानकर परंपरागुरु मानें, तो इससे उनका यापनीय होना सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि परंपरा गुरु के रूप में तो गौतम
आदिगणधरों एवं भद्रबाहु आदिप्राचीन आचार्यों का भी उल्लेख किया जाता है। अंत में, सिद्ध यही होता है कि सुिद्धसेन दिवाकर यापनीयन होकर यापनीयों के पूर्वजथे। सिद्धसेन श्वेताम्बरों के पूर्वजआचार्य हैं
सिद्धसेन को पाँचवीं शती के पश्चात् के सभी श्वेताम्बर आचार्यों ने अपनी परंपरा का माना है। अनेकशः श्वेताम्बर ग्रंथों में श्वेताम्बर आचार्य के रूप में उनका स्पष्ट निर्देश भी है और यह भी निर्देश है कि वे कुछ प्रश्नों पर आगमिक धारासे मतभेद रखते हैं, फिर भी कहीं भी उन्हें अपनी परंपरा से भिन्न नहीं माना गया है। अतः, सभी साधक प्रमाणों की समीक्षा के आधार पर यही फलित होता है कि वे उस उत्तर भारतीय निर्ग्रन्थ धारा के विद्याधर कुल में हुए हैं, जिसे श्वेताम्बर आचार्य अपनी परंपरा का मानते हैं, अतः वेश्वेताम्बरों के पूर्वज आचार्य हैं।
इसी प्रकार, तीसरा प्रश्न 'न्यायावतार' के कृतित्व के संदर्भ में है। इस संबंध में मेरे और डॉ. श्री प्रकाश पाण्डेय के मन्तव्य में स्पष्टतः मतभेद है। असंग के ग्रंथों में स्पष्ट रूप से 'अभ्रांत' पद मिल जाने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि न्यायावतार जैन न्याय का प्रथम ग्रंथ होने के नाते आचार्य सिद्धसेन दिवाकर की ही रचना है। इस संबंध में मेरा तर्क निम्न है