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________________ 89 सिद्धसेन यापनीय है, मुझे समुचित नहीं लगता है। श्वेताम्बर साहित्य में भी महावीर के सन्मति विशेषण का उल्लेख मिलता है, जैसे सन्मति से युक्त होने से वे श्रमण कहे गए हैं। इस प्रकार, प्रो. ए.एन. उपाध्ये ने सिद्धसेन के यापनीय होने के जो-जो प्रमाण दिये हैं, वेसबल प्रतीत नहीं होते हैं। सुश्री कुसुम पटोरिया ने जुगलकिशोर मुख्तार एवं प्रो. उपाध्ये के तर्कों के साथसाथ सिद्धसेन को यापनीय सिद्ध करने के लिए अपने भी कुछ तर्क प्रस्तुत किये हैं । वे लिखती हैं कि सन्मतिसूत्र का श्वेताम्बर ग्रंथों में भी आदरपूर्वक उल्लेख है। जीतकल्पचूर्णि में सन्मतिसूत्र को सिद्धिविनिश्चय के समान प्रभावकग्रंथ कहा है। श्वेताम्बर परंपरा में सिद्धिविनिश्चय को शिवस्वामी की कृति कहा गया है। शाकटायन व्याकरण में भी शिवार्य के सिद्धिविनिश्चय का उल्लेख है। यदि एक क्षण के लिए मान भी लिया जाये कि ये शिवस्वामी भगवती आराधना के कर्ता शिवार्य ही हैं, तो भी इससे इतनाही फलित होगा कि कुछ यापनीय कृतियाँ श्वेताम्बरों को मान्यथीं, किन्तु इससे सिद्धसेन कायापनीयत्व सिद्ध नहीं होता है। , पुनः, सन्मतिसूत्र में अर्द्धमागधीआगम के उद्धरणभी यही सिद्ध करते हैं कि वे उस आगमिक परंपरा के अनुसरणकर्ता हैं, जिसके उत्तराधिकारी श्वेताम्बर एवं यापनीय- दोनों हैं। यह बात हम पूर्व में ही प्रतिपादित कर चुके हैं कि आगमों के अन्तर्विरोध को दूर करने के लिए ही उन्होंने अपने अभेदवाद की स्थापना की थी। सुश्री कुसुम पटोरिया ने विस्तार से सन्मतिसूत्र में उनके आगमिक अनुसरण की चर्चा की है । यहाँ हम उस विस्तार में न जाकर केवल इतना ही कहना पर्याप्त समझते हैं कि सिद्धसेन उस आगमिक धारा में ही हुए हैं, जिसका अनुसरण श्वेताम्बर और यापनीय- दोनों ने किया है और यही कारण है कि दोनों ही उन्हें अपनी-अपनी परंपरा का कहते हैं। __ आगे वे पुनः यह स्पष्ट करती हैं कि गुण और पर्याय के संदर्भ में भी उन्होंने आगमों का स्पष्ट अनुसरण किया है और प्रमाणरूप में आगम-वचन उद्धृत किये हैं। यह भी उन्हें आगमिक धारा का ही सिद्ध करता है। श्वेताम्बर और यापनीय- दोनों धाराएँ अर्द्धमागधी आगम को प्रमाण मानती हैं। सिद्धसेन के सम्मुख जोआगम थे, वे देवर्द्धि वाचना के न होकर माथुरी वाचना के रहे होंगे, क्योंकि देवर्द्धि निश्चित ही सिद्धसेन से परवर्ती हैं। सुश्री पटोरिया ने मदनूर जिला नेल्लौर के एक अभिलेख" का उल्लेख करते
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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