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इनकी चर्चा नहीं है, यहाँ तक कि हरिभद्र भी इन प्रमाणों की चर्चा नहीं करते हैंपूर्ववर्ती श्वेताम्बराचार्य आगमिक तीन प्रमाणों प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द की चर्चा करते हैं । अतः, यह सिद्ध हो जाता है कि न्यायावतार, आगमिक तीन प्रमाणों का ही उल्लेख करने के कारण सिद्धसेन दिवाकर की ही कृति है । यदि यह सिद्धर्षि की कृति होती, तो निश्चय ही मूल कारिका में इनकी चर्चा होनी थी । पुनः, डॉ. पाण्डेय का यह कथन की स्वोपज्ञवृत्ति में कतिपय विषय- बिन्दु ऐसे मिलते हैं कि जिनका उल्लेख मूल में नहीं है, परंतु भाष्य या वृत्ति में होता है, किन्तु मैं डॉ. पाण्डेय के इस तर्क से सहमत नहीं हूँ, क्योंकि यदि न्यायावतार सिद्धर्षि की वृत्ति होती, तो वे कम से कम यह तर्क नहीं देते कि इस न्यायावतार प्रकरण में अनुमान से ऊह को पृथक् करके नहीं दिखाया गया, क्योंकि यह प्रकरण संक्षिप्त रुचि के जीवों के अनुग्रह के लिए लिखा गया। इस प्रसंग में यदि सिद्धर्षि ने स्वयं ही मूलग्रंथ लिखा होता, तो अवश्य यह लिखते कि मैंने यह प्रकरण संक्षिप्त रुचि वाले लोगों के लिये बनाया । सिद्धर्षि ने कहीं भी इस तथ्य का निर्देश नहीं किया है कि मूलग्रंथ मेरे द्वारा बनाया गया है । अतः, यह कल्पना करना निराधार है कि मूल न्यायावतार सिद्धर्षि की कृति है और उस पर उन्होंने स्वोपज्ञवृत्ति लिखी है।
यह सत्य है कि उस युग में स्वोपज्ञ टीका या वृत्ति लिखे जाने की प्रवृत्ति प्रचलन में थी, किन्तु इस सिद्धर्षि की वृत्ति से कहीं भी फलित नहीं होता है कि वह स्वोपज्ञ है । पुनः, स्वोपज्ञवृत्ति में मूल में वर्णित विषयों का ही स्पष्टीकरण किया जाता है, उसमें नये विषय नहीं आते। उदाहरण के रूप में तत्त्वार्थसूत्र मूल में गुणस्थान सिद्धांत की कोई चर्चा नहीं है, तो उसके स्वोपज्ञभाष्य में भी किसी भी स्थान में गुणस्थान सिद्धांत की चर्चा नहीं की गई, किन्तु अन्य आचार्यों के द्वारा जब उस पर टीकाएं लिखी गईं, तो उन्होंने विस्तार से गुणस्थान सिद्धांत की चर्चा की। इससे यही फलित होता है कि न्यायावतार की मूल कारिकाएं सिद्धर्षि की कृति नहीं हैं । यदि मूलकारिकाएँ भी सिद्धर्षि की कृति होतीं, तो उनमें नैगमादि नयों एवं स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क आदि प्रमाणों की कहीं कोई चर्चा नहीं होनी थी ।
नय विवेचन के संदर्भ में डॉ. पाण्डेय का यह तर्क भी समीचीन नहीं है कि “यदि सिद्धर्षि सिद्धसेन के ग्रंथ पर वृत्ति लिखे होते, तो जो सिद्धसेन को अभीष्ट नहीं है या तो उसका उल्लेख नहीं करते, या उल्लेख करते भी, तो यह कहकर कि मूलाकार इसे नहीं मानता”। यहाँ उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि टीकाकारों के द्वारा अपनी