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________________ 95 नवीन मान्यता को प्रस्तुत करते समय कहीं भी यह लिखने की प्रवृत्ति नहीं रही है कि वे आवश्यक रूपसे जो मूलग्रन्थकार का मंतव्य नहीं है, उसका उल्लेख करें। सिद्धर्षि की न्यायावतार वृत्ति में नयों की जो चर्चा है, वह किसी मूल कारिका की व्याख्या न हो करके एक परिशिष्ट के रूप में की गई चर्चा ही है, क्योंकि मूल ग्रंथ की 29वीं कारिका में मात्र ‘नय' शब्द आया है, उसमें कहीं भी नय कितने है, यह उल्लेख नहीं है, यह टीकाकार की अपनी व्याख्या है और टीकाकार के लिए यह बाध्यता नहीं होती है कि वह उन विषयों की चर्चा न करे, जो मूल नहीं हैं। इतना निश्चित है कि यदि सिद्धर्षि की वृत्ति स्वोपज्ञ होती, तो वे मूल में कहीं न कहीं नयों की चर्चा करते। इससे यही फलित होता है कि मूल ग्रंथकार और वृत्तिकार- दोनों अलग-अलग व्यक्ति हैं। टीका में नवीन-नवीन विषयों का समावेशयही सिद्ध करताहै किन्यायावतार की सिद्धर्षि की वृत्तिस्वोपज्ञ नहीं है। जहाँ तक डॉ. पाण्डेय के इस तर्क का प्रश्न है कि वृत्तिकार ने मूलग्रन्थकार का निर्देश प्रारंभ में क्यों नहीं किया, इस संबंध में मेरा उत्तर यह है कि जैन परंपरा में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहाँ वृत्तिकार मूलग्रन्थकार से भिन्न होते हुए भी मूल ग्रंथकार का निर्देश नहीं करता है। उदाहरण के रूप में, तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में कहीं भी यह निर्देशनहीं है कि वह उमास्वाति के मूलग्रंथपरटीका लिख रहा है। ये लोग प्रायः केवल ग्रंथ का निर्देश करके ही संतोष कर लेते थे, ग्रंथकार का नाम बताना आवश्यक नहीं समझते थे, क्योंकि वह जनसामान्य में ज्ञात ही होता था। अतः, यह मानना कि 'न्यायावतार' सिद्धसेन दिवाकर की कृति न होकर सिद्धर्षि की कृति है और उसपर लिखी गई न्यायावतार वृत्तिस्वोपज्ञ है, उचित प्रतीत नहीं होता। न्यायावतार सिद्धसेन की कृति है, इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण तो यह है कि मल्लवादी ने अपने ग्रंथ नयचक्र में स्पष्ट रूप से सिद्धसेन को न्यायावतार का कर्ता कहा है । मुझे ऐसा लगता है कि प्रतिलिपिकारों के प्रमाद के कारण ही कहीं न्यायावतार की जगह नयावतार हो गया है। प्रतिलिपियों में ऐसी भूलें सामान्यतया हो ही जाती हैं। जहाँ तक सिद्धसेन की उन स्तुतियों का प्रश्न है, जिनमें महावीर के विवाह आदि के संकेत हैं, दिगम्बर विद्वानों की यह अवधारणा कि यह किसी अन्य सिद्धसेन की कृति है, उचित नहीं है। केवल अपनी परंपरा से समर्थित न होने के कारण किसी अन्य सिद्धसेन की कृति कहें, यह उचित नहीं है।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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