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दिगम्बर आचार्यों ने जो कुछ भी प्राकृत में लिखा है, वह सब शौरसेनी प्राकृत में ही लिखा है, जबकि सन्मतिसूत्र स्पष्टतः महाराष्टी प्राकृत में लिखा गया है। सन्मतिसूत्र का महाराष्टी प्राकृत में लिखा जाना ही इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है कि सिद्धसेन यापनीय या दिगम्बर नहीं हैं। वे या तो श्वेताम्बर हैं, या फिर उत्तर भारत की उस निर्ग्रन्थ धारा के सदस्य हैं, जिससे श्वेताम्बर और यापनीय-दोनों विकसित हुए हैं, किन्तु वे दिगम्बर तो किसीभी स्थिति में नहीं हैं।
सिद्धसेन का सन्मतिसूत्र एक दार्शनिक ग्रंथ है और उस काल तक स्त्री-मुक्ति और केवली -भुक्ति जैसे प्रश्न उत्पन्न ही नहीं हुए थे। अतः सन्मतिसूत्र में न तो इनका समर्थन है और न खण्डन ही। इस काल में उत्तर भारत में आचार और विचार के क्षेत्र में जैन संघ में विभिन्न मान्यताएँ जन्म ले चुकी थीं, किन्तु अभी साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण श्वेताम्बर, दिगम्बर, यापनीय आदि रूपों में नहीं हो पाया था। वह युग था, जब जैन परंपरा में तार्किक चिन्तन प्रारंभ हो चुका था और धार्मिक एवं आगमिक मान्यताओं को लेकर मतभेद पनप रहे थे। सिद्धसेन का आगमिक मान्यताओं को तार्किकता प्रदान करने का प्रयत्न भी इसी तथ्य की पुष्टि करता है। फिर भी, उस युग में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय ऐसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ पाये थे। श्वेताम्बर एवं यापनीयसम्प्रदाय के संबंध में स्पष्ट नाम निर्देश के साथ जोसर्वप्रथम उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे लगभगई. सन् 475, तदनुसार विक्रम सं. 532 के लगभग अर्थात् विक्रम की छठवीं शताब्दी पूर्वार्द्ध के हैं । अतः, सिद्धसेन को किसी सम्प्रदाय विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता, क्योंकि उस युग तक न तो सम्प्रदायों का नामकरण हुआ था और न ही वे अस्तित्व में आये थे। मात्र गण, कुल, शाखा आदि का ही प्रचलन था और यह स्पष्ट है कि सिद्धसेन विद्याधरशाखा (कुल) के थे। क्या सिद्धसेन यापनीय हैं?
प्रो.ए.एन. उपाध्ये ने सिद्धसेन के यापनीय होने के संदर्भ में जो तर्क दिये हैं," यहाँ उनकी समीक्षा कर लेनाभीअप्रासंगिक नहीं होगा।
(1) उनका सर्वप्रथम तर्क यह है कि सिद्धसेन दिवाकर के लिए आचार्य हरिभद्र ने श्रतुकेवली विशेषण का प्रयोग किया है और श्रुतकेवली यापनीय आचार्यों का विशेषण रहा है, अतः सिद्धसेन यापनीय हैं । इस संदर्भ में हमारा कहना यह है कि श्रुतकेवली विशेषण न केवल यापनीय परंपरा के आचार्यों का, अपितु श्वेताम्बर