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________________ 85 परंपरा के प्राचीन आचार्यों का भी विशेषण रहा है। यदिश्रुतकेवली विशेषण श्वेताम्बर और यापनीय- दोनों ही परंपराओं में पाया जाता है, तो फिर यह निर्णय कर लेना कि सिद्धसेन यापनीय हैं, उचित नहीं होगा। (2) आदरणीय उपाध्यायजी का दूसरा तर्क यह है कि सन्मतिसूत्र का श्वेताम्बर आगमों से कुछ बातों में विरोध है। उपाध्येजी के इस कथन में इतनी सत्यता अवश्य है कि सन्मतिसूत्र की अभेदवादी मान्यता का श्वेताम्बर आगमों में विरोध है। मेरी दृष्टि से यह एक ऐसा कारण है कि श्वेताम्बर आचार्यों ने अपने प्रबन्धों में उनके सन्मतितर्क का उल्लेख नहीं किया है, लेकिन मात्र इससे वेन तोआगम विरोधी सिद्ध होते हैं और न यापनीय ही। सर्वप्रथम तो श्वेताम्बर आचार्यों ने उन्हें अपनी परंपरा का मानते हुए ही उनके इस विरोध का निर्देश किया है, कभी उन्हें भिन्न परंपरा का नहीं कहा है। दूसरे, यदि हम सन्मतिसूत्र को देखें, तो स्पष्ट हो जाता है कि वे आगमों के आधार पर ही अपने मत की पुष्टि करते थे। उन्होंने आगम मान्यता के अन्तर्विरोध को स्पष्ट करते हुए सिद्ध किया है कि अभेदवादभी आगमिक धारणा के अनुकूल है। वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि आगम के अनुसार केवलज्ञान सादि और अनंत है, तो फिर क्रमवाद संभव नहीं होता है, क्योंकि केवल ज्ञानोपयोग समाप्त होने पर केवल दर्शनोपयोग हो सकता है। वे लिखते हैं कि सूत्र की आशातना से डरने वाले को इस आगम वचन पर भी विचार करना चाहिए। वस्तुतः, अभेदवाद के माध्यम से वे, उन्हें आगम में जो अन्तर्विरोध परिलक्षित हो रहा था, उसका ही समाधान कर रहे थे। वे आगमों की तार्किक असंगतियों को दूर करना चाहते थे और उनका यह अभेदवाद भी उसी आगमिक मान्यता की तार्किक निष्पत्ति है, जिसके अनुसार केवलज्ञान सादि, किन्तु अनंत है। वे यही सिद्ध करते है कि क्रमवादभीआगमिक मान्यता के विरोध में है। ___ (3) प्रो. उपाध्ये का यह कथन सत्य है कि सिद्धसेन दिवाकर का केवली के ज्ञान और दर्शन के अभेदवाद का सिद्धांत दिगम्बर परंपरा के युगपद्वाद के अधिक समीप है। हमें यह मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि सिद्धसेन के अभेदवाद का जन्म क्रमवाद और युगपद्वाद के अन्तर्विरोध को दूर करने हेतु ही हुआ है, किन्तु यदि सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर या यापनीय होते तो उन्हें सीधे रूप में युगपद्वाद के सिद्धांत को मान्य कर लेना था, अभेदवाद के स्थापना की क्या आवश्यकता थी ? वस्तुतः, अभेदवाद के माध्यम से वे एक ओर केवलज्ञान के सादि-अनन्त होने की आगमिक
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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