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________________ 83 करते थे, किन्तु वे आगमों को युगानुरूप तर्क पुरस्सरता भी प्रदान करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने सन्मतिसूत्र में आगमभीरु आचार्यों पर कटाक्ष किया तथा आगमों में उपलब्ध असंगतियों का निर्देश भी किया है । " परवर्ती प्रबंधों में उनकी कृति सन्मतिसूत्र का उल्लेख नहीं होने का स्पष्ट कारण यह है कि सन्मतिसूत्र में श्वेताम्बर आगम मान्य क्रमवाद का खण्डन है और मध्ययुगीन सम्प्रदायगत मान्यताओं से जुड़े हुए श्वेताम्बराचार्य यह नहीं चाहते थे कि उनके सन्मतिसूत्र का संघ में व्यापक अध्ययन हो, अतः जानबूझकर उन्होंने उसकी उपेक्षा की । पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार ने सन्मतिसूत्र के कर्त्ता सिद्धसेन को दिगम्बर सिद्ध करने के उद्देश्य से यह मत भी प्रतिपादित किया है कि सन्मतिसूत्र के कर्त्ता सिद्धसेन, कतिपय द्वात्रिंशिकाओं के कर्त्ता सिद्धसेन और न्यायावतार के कर्त्ता सिद्धसेन - ये तीनों अलग-अलग व्यक्ति हैं।" उनकी दृष्टि में सन्मतिसूत्र के कर्त्ता सिद्धसेन दिवाकर दिगम्बर हैं- शेष दोनों श्वेताम्बर हैं, किन्तु यह उनका दुराग्रह मात्र है - वे यह बता पाने में पूर्णतः असमर्थ रहे हैं कि आखिर ये दोनों सिद्धसेन कौन हैं ? सिद्धसेन के जिन ग्रंथों में दिगम्बर मान्यता का पोषण नहीं होता हो, उन्हें अन्य किसी सिद्धसेन की कृति कहकर छुटकारा पा लेना उचित नहीं कहा जा सकता। उन्हें यह बताना चाहिए कि आखिर ये द्वात्रिंशिकाएं कौनसे सिद्धसेन की कृति हैं और क्यों इन्हें अन्य सिद्धसेन की कृति माना जाना चाहिए ? मात्र श्वेताम्बर मान्यताओं का उल्लेख होने से उन्हें सिद्धसेन की कृति होने से नकार देना तो युक्तिसंगत नहीं है । यह तो तभी संभव है, जब अन्य सुस्पष्ट आधारों पर यह सिद्ध हो चुका हो कि सन्मतिसूत्र के कर्त्ता सिद्धसेन दिगम्बर हैं । इसके विपरीत, प्रतिभा समानता के आधार पर पं. सुखलालजी इन द्वात्रिंशिकाओं को सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन की ही कृतियाँ मानते हैं । " श्वेताम्बर परंपरा में सिद्धसेन दिवाकर, सिद्धसेनगणि और सिद्धर्षि का उल्लेख मिलता है, किन्तु इनमें सिद्धसेन दिवाकर को ही 'सन्मतिसूत्र', स्तुतियों (द्वात्रिंशिकाओं ) और न्यायावतार का कर्त्ता माना गया है। सिद्धसेनगणि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य की वृत्ति के कर्ता हैं और सिद्धर्षि - सिद्धसेन के ग्रंथ न्यायावतार के टीकाकार हैं। सिद्धसेनगणि और सिद्धर्षि को कही भी द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार का कर्त्ता नहीं कहा गया है । पुनः, आज तक एक भी ऐसा प्रमाण उपलब्ध नहीं है कि किसी भी यापनीय या दिगम्बर आचार्य के द्वारा महाराष्ट्री प्राकृत में कोई ग्रंथ लिखा गया हो । यापनीय और
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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