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________________ 82 के बावजूद भी अपनी ही परंपरा का आचार्य प्राचीन काल से मानते आ रहे हैं। श्वेताम्बर ग्रंथों में उन्हें दण्डित करने की जो कथा प्रचलित है, वह भी यही सिद्ध करती है कि वे सचेल धारा में ही दीक्षित हुए थे, क्योंकि किसी आचार्य को दण्ड देने का अधिकार अपनी ही परंपरा के व्यक्ति को होता है- अन्य परंपरा के व्यक्ति को नहीं। अतः सिद्धसेन दिगम्बर परंपरा के आचार्यथे, यह किसीभी स्थिति में सिद्ध नहीं होता है। केवल यापनीय ग्रंथों और उनकी टीकाओं में सिद्धसेन का उल्लेख होने से इतना ही सिद्ध होता है कि सिद्धसेन यापनीय परंपरा में मान्य रहे हैं। पुनः, श्वेताम्बर धारा से कुछ बातों में अपनी मत - भिन्नता रखने के कारण उनको यापनीय या दिगम्बर परंपरा में आदर मिलना अस्वाभाविकभी नहीं है। जो भी हमारे विरोधी का आलोचक होता है, वह हमारे लिए आदरणीय होता है- यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है। कुछ श्वेताम्बर मान्यताओं का विरोध करने के कारण सिद्धसेन यापनीय और दिगम्बरदोनों परंपराओं के आदरणीय रहे हैं, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि वे दिगम्बर या यापनीय हैं। यह तो उसी लोकोक्ति के आधार पर हुआ है कि ‘शत्रु का शत्रु मित्र होता है। किसी भी दिगम्बर परंपरा के ग्रंथ में सिद्धसेन के जीवनवृत्त का उल्लेख' होने से तथा श्वेताम्बर परंपरा द्वारा उन्हें कुछ काल के लिए संघ से निष्कासित किये जाने के विवरणों से यही सिद्ध होता है कि वे दिगम्बर या यापनीय परंपरा के आचार्य नहीं थे। मतभेदों के बावजूद भी श्वेताम्बरों ने सदैव ही उन्हें अपनी परंपरा का आचार्य माना है। दिगम्बर आचार्यों ने उन्हें द्वेष्य-सितपट' तो कहा, किन्तु अपनी परंपरा का कभी नहीं माना। एक भी ऐसा स्पष्ट उल्लेख नहीं है, जिसमें सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन को दिगम्बर परंपरा का कहा गया हो, जबकि श्वेताम्बर भण्डारों में उपलब्ध कृतियों की प्रतिलिपियों में उन्हें श्वेताम्बराचार्य कहा गया है। श्वेताम्बर परंपरा के साहित्य में छठवीं-सातवीं शताब्दी से लेकर मध्यकाल तक सिद्धसेन के अनेक उल्लेख उपलब्ध होते हैं । पुनः, सिद्धसेन की कुछ द्वात्रिंशिकाएं स्पष्ट रूप से महावीर के विवाह आदि श्वेताम्बर मान्यता एवं आगम ग्रंथों की स्वीकृति और आगमिक सन्दर्भो का उल्लेख करती है। यद्यपि श्वेताम्बर परंपरा के ग्रंथ यह भी उल्लेख करते हैं कि कुछ प्रश्नों को लेकर उनका श्वेताम्बर मान्यताओं से मतभेद था, किन्तु इससे यह तो सिद्ध नहीं होता है कि वे किसी अन्य परंपरा के आचार्य थे। यद्यपि सिद्धसेन श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य को स्वीकार
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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