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________________ 81 पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन को दिगम्बर परंपरा का आचार्य सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं, तथापि मुख्तारजी उन्हें दिगम्बर परंपरा का आचार्य होने के संबंध में कोई भी आधारभूत प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाये हैं। उनके तर्क मुख्यतः दो बातों पर स्थित है - प्रथमतः सिद्धसेन के ग्रंथों से यह फलित नहीं होता कि वे स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति और सवस्त्रमुक्ति आदि के समर्थक थे । दूसरे, यह कि सिद्धसेन अथवा उनके ग्रंथ सन्मतिसूत्र का उल्लेख जिनसेन, हरिषेण, वीरषेण आदि दिगम्बर आचार्यों ने किया है- इस आधार पर वे उनके दिगम्बर परंपरा के होने की संभावना व्यक्त करते हैं। यदि आदरणीय मुख्तारजी उनके ग्रंथों में स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति या सवस्त्रमुक्ति का समर्थन नहीं होने के निषेधात्मक तर्क के आधार पर उन्हें दिगम्बर मानते हैं, तो फिर इसी प्रकार के निषेधात्मक तर्क के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि उनके ग्रंथों में स्त्रीमुक्ति, केवलीभुक्ति और सवस्त्र मुक्ति का खण्डन नहीं है, अतः वेश्वेताम्बरपरंपरा के आचार्य हैं। पुनः, मुख्तारजी ये मान लेते हैं कि रविषेण और पुन्नाटसंघीय जिनसेन दिगम्बर परंपरा के हैं, यह भी उनकी भ्रांति है। रविषेण यापनीय परंपरा के हैं, अतः उनके परदादा गुरु के साथ में सिद्धसेन दिवाकर का उल्लेख मानें, तो भी वे यापनीय सिद्ध होंगे, दिगम्बर तो किसी भी स्थिति में सिद्ध नहीं होंगे।आदरणीय मुख्तारजी ने एक यह विचित्र तर्क दिया है कि श्वेताम्बर प्रबन्धों में सिद्धसेन के सन्मतिसूत्र का उल्लेख नहीं है, इसलिए प्रबन्धों में उल्लिखित सिद्धसेन अन्य कोई सिद्धसेन हैं, वे सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन नहीं हैं। किन्तु मुख्तारजी ये कैसे भूल जाते हैं कि प्रबंध ग्रंथों में लिखे जाने के पाँच सौ वर्ष पूर्व हरिभद्र के पंचवस्तु तथा जिनभद्र की निशीथचूर्णि में सन्मतिसूत्र और उसके कर्ता के रूप में सिद्धसेन के उल्लेख उपस्थित हैं । जब प्रबन्धों से प्राचीन श्वेताम्बर ग्रंथों में सन्मतिसूत्र के कर्ता के रूप में सिद्धसेन का उल्लेख है, तो फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि प्रबन्धों में जो सिद्धसेन का उल्लेख है, वह सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन का न होकर कुछ द्वात्रिंशिकाओं और न्यायावतार के कर्ता किसी अन्य सिद्धसेन का है। पुनः, श्वेताम्बर आचार्यों ने यद्यपि सिद्धसेन के अभेदवाद का खण्डन किया है और उन्हें आगमों की अवमानना करने पर दण्डित किये जाने का उल्लेख भी किया है, किन्तु किसी ने भी उन्हें अपने से भिन्न परम्परा या सम्प्रदाय का नहीं बताया है। श्वेताम्बर परम्परा के विद्वान् उन्हें मतभिन्नता
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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