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सिद्धसेन दिवाकर की परंपरा
जहाँ तक उनकी परंपरा का प्रश्न हैं, डॉ. पाण्डेय ने इसकी विस्तृत चर्चा नहीं की है। संभवतः, डॉ. पाण्डेय ने उनकी परंपरा के संदर्भ में विशेष उल्लेख यह जानकर नहीं किया हो कि इस संबंध में विस्तृत चर्चा मैंने अपने ग्रंथ जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय में की है, अतः मैं यह आवश्यक समझता हूँ कि यह चर्चा इस भूमिका में कर दी जाए।
सिद्धसेन दिवाकर के सम्प्रदाय के विषय में विभिन्न दृष्टिकोण परिलक्षित होते हैं। जिनभद्र, हरिभद्र आदि से प्रारंभ करके पं. सुखलालजी, पं. बेचरदासजी आदि सभी श्वेताम्बर परंपरा के विद्वान् एकमत से उन्हें अपने सम्प्रदाय का स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत षट्खण्डागम की धवलाटीकाएवं जिनसेन के हरिवंश तथारविषेण के पद्मपुराण में सिद्धसेन का उल्लेख होने से पं. जुगलकिशोर मुख्तार जैसे दिगम्बर परंपरा के कुछ विद्वान् उन्हें अपनी परंपरा का आचार्य सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, किन्तु दिगम्बर परंपरा में उनकी कुछ भिन्नताओं को देखकर प्रो. ए.एन. उपाध्ये आदि कुछ दिगम्बर विद्वानों ने उन्हें यापनीय परम्परा का आचार्य सिद्ध करने का प्रयास किया है। प्रो. उपाध्ये ने जो तर्क दिये, उन्हें स्पष्ट करते हुए तथा अपनी ओर से कुछ अन्य तर्कों को प्रस्तुत करते हुए डॉ. कुसुम पटोरिया ने भी उन्हें यापनीय परंपरा का सिद्ध किया है। प्रस्तुत संदर्भ में हम इन विद्वानों के मन्तव्यों की समीक्षा करते हुए यह निश्चय करने का प्रयत्न करेंगे कि वस्तुतः सिद्धसेन की परंपरा क्या थी? क्या सिद्धसेन दिगम्बर हैं?
समन्तभद्र की कृति के रूप में मान्य रत्नकरण्डक श्रावकाचार में प्राप्त न्यायावतार की जिस समान कारिका को लेकर विवाद है कि यह सिद्धसेन ने समन्तभद्र से ली है, इस संबंध में प्रथम तो यह निश्चित नहीं है कि रत्नकरण्डसमन्तभद्र की कृति है, दूसरे, यह कि यह कारिका दोनों ग्रंथों में अपने योग्य स्थान पर है, अतः इसे सिद्धसेन से समन्तभद्र ने लिया है या समन्तभद्र से सिद्धसेन ने लिया है- यह कह पाना कठिन है। तीसरे, यदि समन्तभद्र भी लगभग 5वीं शती के आचार्य हैं और न्यायावतार को सिद्धसेन की कृति मानने में बाधा नहीं है, तो यहभी संभव है, समन्तभद्र ने इसे सिद्धसेन से लिया हो। समन्तभद्र की आप्तमीमांसा में भी सन्मतितर्क की कई गाथाएँ अपने संस्कृत रूप में मिलती है।