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________________ के उत्तरार्द्ध में हुए होंगे। पुनः, विक्रम की छठवीं शताब्दी में पूज्यपाद देवनन्दी ने जैनेन्द्र व्याकरण में सिद्धसेन के मत का उल्लेख किया है। पूज्यपाद देवनन्दी का काल विक्रम की पाँचवीं-छठवीं शती माना गया है। इससे भी वे विक्रम संवत् छठवीं शताब्दी के पूर्व हुए हैं, यह तो सुनिश्चित हो जाता है। मथुरा के अभिलेखों में दो अभिलेख ऐसे हैं, जिनमें आर्य वृद्धहस्ति का उल्लेख है। संयोग से इन दोनों अभिलेखों में काल भी दिया हुआ है। ये अभिलेख हुविष्क के काल के हैं। इनमें से प्रथम में वर्ष 60 का और द्वितीय में वर्ष 79 का उल्लेख है। यदि हम इसे शक संवत् मानें, तो तद्नुसार दूसरे अभिलेख का काल लगभग विक्रम संवत् 215 होगा। यदि ये लेख उनकी युवावस्था के हों, तो आचार्य वृद्धहस्ति का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक मानाजासकता है। इस दृष्टि से सिद्धसेन का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी के उत्तरार्द्ध से चौथी शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच माना जासकता है। इस समग्र चर्चा से इतना निश्चित होता है कि सिद्धसेन दिवाकर के काल की सीमा- रेखा विक्रम संवत् की तृतीय शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर विक्रम संवत् की पंचम शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच ही कहीं निश्चित होगी। पं. सुखलालजी, पं. बेचरदासजी ने उनका काल चतुर्थ-पंचमशताब्दी निश्चित किया है। प्रो. ढाकी ने भी उन्हें पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में माना है, किन्तु इस मान्यता को उपर्युक्त अभिलेखों के आलोक में तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय से समकालिकता की दृष्टि से थोड़ा पीछे लाया जा सकता है। यदि आर्य वृद्धहस्ति ही वृद्धवादी हैं और सिद्धसेन उनके शिष्य हैं, तो सिद्धसेन का काल विक्रम की तृतीय शती के उत्तरार्द्ध से चतुर्थ शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच ही मानना होगा। कुछ प्रबन्धों में उन्हें आर्य धर्म का शिष्य भी कहा गया है। आर्य धर्म का उल्लेख कल्पसूत्र स्थविरावली में है। ये आर्य वृद्ध के बाद तीसरे क्रम पर उल्लिखित हैं। इसी स्थविरावली में एक आर्य धर्म देवर्धिगणिक्षमाश्रमण के पूर्व भी उल्लेखित हैं। यदि हम सिद्धसेन के सन्मतिप्रकरण और तत्त्वार्थसूत्र की तुलना करें तो दोनों में कुछ समानता परिलक्षित होती है। विशेष रूप से तत्त्वार्थसूत्र के अनेकांतदृष्टि को व्याख्यायित करने के लिए अर्पित' और 'अनर्पित' जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है। इन शब्दों का प्रयोग सन्मतितर्क (1/42) में भी पाया जाता है। मेरी दृष्टि में सिद्धसेन उमास्वाति से किंचित् परवर्ती हो सकते हैं।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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