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75 (४) नियमसार – यह शौरसेनी प्राकृत में रचित एक संक्षिप्त ग्रन्थ है। इसकी गाथा संख्या पद्यप्रभ के अनुसार १८७ है। इस पर अमृतचंद्रजी और जयसेन की कोई टीकाएँ नहीं है। पद्यप्रभ के अतिरिक्त इसकी अन्य टीकाएँ उपलब्ध नहीं होती है। इस ग्रन्थ का मूल विषय सम्यक्-दर्शन, सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-चारित्र एवं षद्रव्य ही है। जहाँ तक मेरी जानकारी सामायिक आदि सम्बन्धी इसकी कुछ गाथाएं नन्दीसूत्र में भी उपलब्ध होती है। यद्यपि इनको किसने किससे लिया है यह विषय विवादास्पद ही रहा है। यदि हम कुन्दकुन्द को ईस्वी सन् की छठी शती का माने तो उनके द्वारा ये गाथाएँ नन्दीसूत्र से अवतरित किया जाना सिद्ध हो सकता है, अन्यथा नहीं। इति अलम् । (५-१२) अष्टप्राभृत या अट्ठपाहुड – वस्तु अष्टप्राभृत या अट्ठपाहुड वस्तुतः एक ग्रन्थ न होकर आठ ग्रन्थों का समूह है इसके अन्तर्गत- १. दंसण पाहुड, २. सुत्त पाहुड, ३. चारित्त पाहुड, ४. शील पाहुड, ५. बोध पाहुड, ६. भाव पाहुड, ७. लिग्ड पाहुड और ८. मोक्ख पाहुड – ये आठ छोटे छोटे ग्रन्थ समाहित है। पं. मुख्तारजी के अनुसार प्रत्येक पाहुड की गाथा संख्या इस प्रकार है - दसण पाहुड – ३६, सुत्त पाहुड – २७, चारित्त पाहुड – ४४, शील पाहुड – ४०, बोध पाहुड – ६२, भाव पाहुड- १६३, लिंग पाहुड – २२, और मोक्ख पाहड में १६ गाथाएँ है। कुछ विद्वान इन ग्रन्थों को अलग-अलग करके इन्हें आठ स्वतन्त्र ग्रन्थों में विभाजित करते है। कुछ विद्वानों ने मात्र छह पाहुडों को अलग से प्रकाशित भी किया है। (१३) बारस्साणुवेक्खा (द्वादशाणुप्रेक्षा) – अणुप्रेक्षाएँ १२ मानी गई है, इन्हें भावनाएँ भी कहा जाता है। अणुप्रेक्षाओं या भावनाओं की संख्या को लेकर जैन परम्परा में अनेक मत है - कुछ आचार्य मैत्री, प्रमोद, करूणा और माध्यस्थ - ऐसी चार भावनाएँ मानते है। किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में निम्न १२ भावनाएँ मानी गई है - १. अनित्य भावना, २. अशरण भावना, ३. एकत्व भावना, ४. अन्यत्व भावना, ५. संसार भावना, ६. लोक भावना, ७. अशुचि भावना, ८. आस्रव भावना, ६. संवर भावना, १०. निर्जरा भावना, ११. धर्म भावना और १२. बोधि दुर्लभ भावना। प्रकारान्तर से श्वे. आगमों में पांच महाव्रतों की पच्चीस भावनाओं का उल्लेख भी मिलता है। फिर भी जैन परम्परा में भावनाओं को लेकर जो भी ग्रन्थ लिखे गये है उनमें उपरोक्त बारह भावनाओं की ही चर्चा हुई है आचार्य कुन्दकुन्द ने