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अर्थ श्वेताम्बर आगम आचारांग के आधार पर ही ठीक बैठता है, कहानजी स्वामी के संस्करण में तो पाठ ही बदल दिया है, "अपदेस सुत्तमज्झं" के स्थान पर “अपदेस संत मज्झं" कर दिया है। मूल अर्थ है शास्त्र या आगम में (आचारांग में) उसे अव्यपदेश्य अर्थात् अनिर्वचनीय कहा है।
(२) पंचास्तिकायसार - तत्त्वमीमासीय दृष्टि से यह भी आचार्य श्री का एक बहुत ही महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, यह भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत में रचित है। इसकी गाथा संख्या अमृतचंद्रजी की टीका के अनुसार १७३ है, जबकि जयसेनाचार्य ने १८१ मानी है। इसमें जैनतत्वमीमांसा की एक महत्वपूर्ण अवधारणा अर्थात् पंचास्तिकायों का विवेचन प्रस्तुत किया गया है। मेरी दृष्टि में जैनदर्शन में पंचास्तिकायो की अवधारणा मूल है और उसी से षद्रव्यों की अवधारणा का विकास हुआ है। पंचास्तिकाय है १. जीवास्तिकाय, २. पुद्गलस्तिकाय, ३. धर्मास्तिकाय, ४. अधर्मास्तिकाय और ५. आकाशस्तिकाय । जैनदर्शन में प्राचीनकाल में लोक को पंचास्तिकाय रूप माना गया था और कालक्रम में उसमें अनास्तिकाय के रूप में काल को जोडकर ही षट्द्रव्यों की अवधारणा बनी है।
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(३) प्रवचनसार - आचार्य कुन्दकुन्द के महत्वपूर्ण ग्रन्थों में प्रवचनसार का नाम आता है। यह ग्रन्थ भी मूलतः शौरसेनी प्राकृत में रचित है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर अर्द्धमागधी एवं महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव होने से उनकी भाषा को अजैन विद्वानों ने जैन शौरसेनी भी कहा है। अमृतचंद्रजी कृत टीका में इसकी गाथा संख्या २७५ है जबकि जयसेनाचार्य कृत टीका में इसकी गाथा संख्या ३११ है । कहमजी स्वामी ने भी अमृतचंद्रजी का अनुसरण कर गाथा संख्या २७५ ही मानी है । इसके प्रथम ज्ञानतत्त्व प्रज्ञापन अधिकार के चार उप अधिकार है - १. शुद्धोपयोगधिकार २. ज्ञानाधिकार, ३ सुखाधिकार और ४. शुद्ध परिणामाधिकार। इसी प्रकार दूसरे ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन - अधिकार को द्रव्य सामान्य अधिकार और द्रव्य - विशेष अधिकार तथा ज्ञाताज्ञेय अधिकार ऐसे तीन भागों में विभाजित किया है। तीसरे चरगाणुयोग चूलिका महाधिकार को भी चार अधिकारों में विभाजित किया गया है १. आचरण प्रज्ञापनाधिकार, २ . मोक्षमार्ग प्रज्ञापनाधिकार, ३. शुद्धोपयोग प्रज्ञापनाधिकार और ४. पंचरत्नाधिकार । सामान्य तथा इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य मोक्षमार्ग ही है।