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को क्रमशः आठ और दस ग्रन्थ माने है। उनके अनुसार यह सूची निम्न है - 1. समयसार, 2. नियमसार, 3. पंचास्तिकायसार, 4. प्रवचनसार, 5. बारस्साणुवेक्खा, 6. दंसणपाहुड, 7. सुत्तपाहुड, 8. चारित्तपाहुड, 9. शीलपाहुड, 10. बोधपाहुड, 11. भावपाहुड, 12. मोक्खपाहुड, 13. लिंगडपाहुड, 14. रयणसार, 15. सिद्धभक्ति, 16. श्रुतभवित, 17. योगीभवित, 18. चारित्रभवित, 19. आचार्यभवित, 20. निर्वाणभवित, 21. पंचगुरूभवित, 22. थोरसामिभक्ति । कुछ लोगों ने वट्टकेर के २३ मूलाचार का कर्ता भी उन्हें माना है। इस प्रकार मुख्तारजी उनके ग्रन्थों की संख्या २२ या २३ बताते है। कुछ विद्वानों ने अष्टपाहुड, रयणसार और मूलाचार के उनके कृर्तव्य के सम्बन्ध में शंका भी उठाई है। यहाँ मै इस विवाद में पड़कर मात्र उनके इन ग्रन्थों का अति-संक्षिप्त परिचय मात्र दूगाँ । (१) समयसार – आचार्य कुन्द के साहित्य में श्रेष्ठ आध्यात्मिक ग्रन्थ के रूप में समयसार का स्थान सर्वोपरि है। यह ग्रन्थ मूलतः शौरसेनी प्राकृत में उपलब्ध है, इसकी गाथा संख्या विभिन्न सस्करणों में अलग-अलग है, यथा - अमृतचन्द्रजी की टीका में समयसार की गाथा सं. ४१५ है, जबकि जयसेन की टीका में गाथा संख्या ४३६ है। यही स्थिति अन्य संस्करणों की भी है जैसे - कहानजी स्वामी के संस्करण में ४१५ गाथाएँ है। इस ग्रन्थ में निश्चयदृष्टि और व्यवहारदृष्टि से आम्रव, पुण्य, पाप, बध, संवर, निर्जरा और मोक्ष की अवस्थाओं का सुन्दर चित्रण है। वैदिक परम्परा में इसी प्रकार की दृष्टि को लेकर अष्टावक्रगीता नामक ग्रन्थ मिलता है। दोनो में आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत समरूपता है। यह तो निश्चित है कि अष्टावक्र उपनिषदकालीन ऋषि है। अतः उनकी अष्टावक्रगीता से या उनकी आध्यात्मिकदृष्टि से कुन्दकुन्द के समयसार का प्रभावित होना भी पूर्णतः अमान्य नहीं किया जा सकता है। यद्यपि समयसार में निश्चयनय की प्रधानता से अनेक कथन है, किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द ने कही भी व्यवहारनय की उपेक्षा नहीं की है। जबकि उनके टीकाकार अमृतचंद्रजी ने व्यवहार की उपेक्षा कर निश्चय पर अधिक बल दिया है। अमृतचंद्रजी की विशेषता यह है कि वे अपनी डोर को जैनदर्शन के खूटे से बाधकर अपनी पतंग वेदान्त के आकाश में उडाते है। कुन्दकुन्द ने अनेक स्थलों पर श्वेताम्बर मान्य आगमों का आश्रय लिया है जैसे गाथा संख्या १५ का