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आचार्यों को अपने पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों के नाम स्मरण में रहे और उन्हें आदर-पूर्वक नमस्कार किया, वे कुन्दकुन्द जैसे महान आचार्य को कैसे भूल गये ? मेरी दृष्टि में इसके दो ही कारण हो सकते है, या तो वे उन्हें अपनी परम्परा का न मानकर किसी अन्य परम्परा का मानते हो, या फिर उनके काल तक कुन्दकुन्द का अस्तित्त्व भी नहीं रहा हो। भाई श्री रतनचंदजी ने माना कि गुणस्थान के सम्बन्ध में मेरा मत परिवर्तित हुआ है, परन्तु ऐसा नहीं है। आचार्य कुन्दकन्द के ग्रन्थों में न केवल गणस्थान अपितु मार्गणास्थान और जीवस्थान की चर्चा भी है न केवल चर्चा है, उनके सहसम्बन्ध की ओर संकेत भी है। ने केवल श्वेताम्बर आगम साहित्य में एक अपवाद को छोडकर जहाँ उन्हें 'जीवठाण' कहा है, श्वेताम्बरों के समान षट्खण्डागम में भी प्रारम्भ में उन्हें ‘जीवठाण' ही कहा है। तत्त्वार्थ में तो कहीं भी गुणस्थान की चर्चा नही है जबकि कुन्दकुन्द उसकी चर्चा करते हैं, जिन दस अवस्थाओं का तत्त्वार्थ के ६ वें अध्याय में उल्लेख है, वे भी गुणस्थान की अवधारणा के विकास के पूर्व की है और षटखण्डागम के कृतिअनुयोगद्वार के परिशिष्ट में पाई जाती है, वे ही दोनों गाथाएँ आचारांग नियुक्ति में यथावत् है। मै तो मात्र यह कहना चाहता हूँ कि यदि १४ गुणस्थानों की अवधारणा उमास्वाति के पूर्व थी, तो उन्होंने उसे क्यों नहीं अपनाया ? क्यों मात्र दस अवस्था की चर्चा की, चौदह की क्यों नही की ?जैनदर्शन और उसकी तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा में अनेक अवधारणाएँ कालक्रम में विकसित हुई है जैसे पंचास्तिकाय से षद्रव्य और तीन प्रमाणों से छह प्रमाणों की अवधारणादि तीन त्रस और तीन स्थावर से पंच स्थावरों और एक त्रस की अवधारणा । अतः गुणस्थान, मार्गणास्थान, सप्तभंगी आदि की सुस्पष्ट अभिव्यक्ति के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द ईसा की छठी शती के बाद ही कभी हुए है। मर्करा अभिलेख को डॉ. हीरालालजी, प्रो. गुलाबचन्दजी चौधरी आदि ने जाली सिद्ध कर ही दिया है, यदि प्रो. रतनचंद्रजी उसे आंशिक सत्य भी माने तो भी वह लेख शक संवत् का है और शक सं. ३८८ भी उसे (३८८+७८+५७=५३३ ई. सन्) ईसा की छठी शती का ही सिद्ध करता है। अतः केवल दिगम्बर विद्वानों की बात को ही माने तो भी कुन्दकुन्द का समय ई. सन् की छठी शती पूर्व नहीं ले जाया सकता है। मर्करा अभिलेख के अतिरिक्त अन्य अभिलेख जो शक संवत् ७१६ एवं ७२४ आदि के