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न कोई दिगम्बर आचार्य जो ईसा की रवीं शती से पूर्व हुआ हैं, उनका निर्देश अवश्य करते। लेकिन समन्तभद्र, जिनसेन प्रथम, अकलंक, विद्यानन्दी आदि कोई भी चाहे उनके पक्ष में हो या विपक्ष में हो उनका निर्देश अवश्य करते। लेकिन आठवीं शती तक कोई भी दिगम्बर या श्वेताम्बर आचार्य उनका निर्देश नहीं करते है। (२) आचार्य कुन्दकुन्द की अमर कृतियाँ समयसार, नियमसार, पंचास्तिकायसार, प्रवचनसार आदि की अमृतचन्द्र के पूर्व तक टीका की बात तो अलग, किसी भी आचार्य ने उनका निर्देश तक नहीं क्यों नहीं किया ?यदि वे उनके पक्षधर होते तो उनका निर्देश करते या उन पर टीका लिखते, काश यदि उनके मन्तव्यों के विरोधी होते तो उनका खण्डन करते। किन्तु ईसा की आठवीं-नवीं शती तक न तो उन कृतियों का कहीं कोई निर्देश मिलता है और उन पर टीका ही लिखी गई है। यहाँ तक कि उनका नाम स्मरण भी कोई नहीं करता है। जबकि अनेक पूर्व आचार्यो का नाम निर्देश आदर पूर्वक किया गया है। (३) मर्करा अभिलेख (राक सं. ३८८) जिसके आधार पर कुन्दकुन्द को ईसा की चौथी शती का भी माना जाता है, वह जाली है, प्रमाणिक नहीं है। प्रथमतः न केवल इतिहासविदों ने, अपितु स्वयं दिगम्बर विद्वानों ने भी उसे जाली मान लिया है। ईसा की पाँचवी, छठी शती के पूर्व के सभी अभिलेख प्राकृत भाषा
और ब्राह्मी लिपी के मिलते है, जबकि यदि अभिलेख संस्कृत भाषा और देवनागरी लिपि में है। (४) कुन्दकुन्द ने जो सुत्तपाहुड गाथा २२-२३ में स्त्री मुक्ति का निषेध किया है, उसका निर्देश आठवीं शती के पूर्ववर्ती किसी भी श्वेताम्बर या दिगम्बर मान्य किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिलता है। नवीं शताब्दि में दिगम्बर आचार्य वीरस्वामी मात्र उसका समर्थन करते हुए षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड के ६३ वें सूत्र की धवलाटीका में करते है, जबकि आठवीं शती में श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ने उसका निर्देशकर उस सम्बन्ध में यापनीय मान्यता का समर्थन किया है। जो अचेलकता की समर्थक होकर भी स्त्रीमुक्ति और केवलीमुक्ति की सापोषक रही है। (५) प्रो. रतनचंद्रजी भी अपने ग्रन्थ 'जैन परम्परा और यापनीय संघ' में कुन्दकुन्द के अनुल्लेखन सम्बन्धी इस प्रश्न का सीधा उत्तर न देकर माना विस्मृति का तर्क देकर छुट्टी पा लेते है। जबकि छटी, सातवीं शती के दिगम्बर