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नाम के अनेक आचार्य हुए है, इनमें कुन्दकुन्द के गुरू कौन से जिनचन्द्र थे, यह निर्णय कर पान कठिन है। सम्भवतः जिनचन्द्र नाम के आधार पर आचार्य हस्तीमलजी ने यह कल्पना करली हो कि कुन्दकुन्द पहले श्वेताम्बर परम्परा में दीक्षित हुए, फिर शिवभूति के प्रभाव से यापनीय या बोटिक हो गये और फिर दिगम्बर होकर मुनि की अचेलता का जोरो से समर्थन करने लगे, किन्तु इस सम्बन्ध में सबल प्रमाण खोज पाना कठिन है। अतः यह आचार्य श्री की स्वैर कल्पना ही हो सकती है। प्रमाणिक तौर पर निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कल्पना कर पाना कठिन ही है। इतना निश्चित ही है कि वे अपने लेखन के आधार पर तो दिगम्बर परम्परा के ही आचार्य सिद्ध होते है। दक्षिण में दिगम्बर परम्परा का ही बाहुल्या था, अतः यह निश्चित उनका समस्त लेखन दिगम्बर परम्परा से प्रभावित रहा है। कुन्दकुन्द का काल
कुन्दकुन्द का समय क्या है ?, यह अत्यन्त ही विवादास्पद विषय रहा है। जहाँ कुछ दिगम्बर विद्वान उन्हें ई.पू. प्रथम शताब्दी में रखते है, वही कुछ विद्वान उन्हें विक्रम की सातवीं या आठवीं शती का मानते है, इनमें से किसे सत्य माना जाये, यह निर्णय अति कठिन है। फिर भी उनके लेखन में प्रस्तुत संकेतो या अवधारणाओं के आधार पर उनके कार्यकाल का निर्णय सम्भव है। सर्वप्रथम पट्टावली के आधार पर डॉ. रतनचंदजी और हार्नले आदि कुछ पश्चिमी विद्वानों ने उन्हें ई.पू. या ईसा की प्रथम शताब्दी का माना है तो दूसरी
ओर प्रो. ढाकी दिगम्बर आचार्यों द्वारा सातवीं तक उनका उल्लेख भी नहीं करना, कुन्दकुन्दान्वय के सभी अभिलेखीय एवं साहित्यिक प्रमाण सातवीं शती के बाद के होने के आधार पर उन्हें विक्रम की सातवीं-आठवीं शती या उसके भी बाद का मानते हैं। मैनें भी अपने पूर्व लेखों में प्रो. ढाकी का समर्थन करते हुए और उनके द्वारा कथित सप्तभंगी, गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थान तथा इनके पारस्परिक सम्बन्ध की स्पष्टता के आधार पर इन्हें पाचवी शती के बाद का ही माना है। कुछ दिगम्बर विद्वान उन्हें पूर्वापर दोनों तिथियों के मध्य रखते हैं यथा प्रो. हीरालालजी ने उन्हें ईसा की द्वितीय शती का माना है। पं. नाथूरामजी प्रेमी ने भी नियमसार की गाथा के लोकविभाग शब्द को आधार बनाकर लगभग उनका समय विक्रम की छठी शती स्वीकार किया है। पं.