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के कुछ प्रमाण उपलब्ध है। गृद्धपिच्छ यह नाम उनके द्वारा मयूरपिच्छ के स्थान पर गृद्ध के पंख की पिच्छी धारण करने से हुआ है और वक्रगीव उनके अत्याधिक लेखन और पठन करने से गर्दन टेडी हो जाने के कारण हुआ हो, ऐलाचार्य भी उनका एक और भी मिलता है, किन्तु ये तीनों विशेषण लगभग ईस्वी सन् की तेहरवीं शती से ही प्रचलन में देखे जाते है अतः ये उनके ही विशेष नाम थे, यह सिद्ध कर पाना कठिन प्रतीत होता है विद्वानों ने कुन्दकुन्द
और पद्यनन्दी इन दो नामों को ही प्रमाणिक माना है। किन्तु इतना निश्चित है कि वे दक्षिण भारतीय दिगम्बर परम्परा के जैनाचार्य हुए है जिन्होने विपुल साहित्य की रचना की थी। गुरू परम्परा और सम्प्रदाय
___अचार्य कुन्दकुन्द के गुरू कौन थे, यह भी पूर्णतः एक विवादास्पद प्रश्न रहा है, उन्होंने अपने ग्रन्थ पाहुड (प्राभृत) में अपने गुरू के रूप में भद्रबाहु का उल्लेख किया है, किन्तु भद्रबाहु नाम के भी अनेक आचार्य हुए है उनके गुरू के रूप में उल्लेखित भद्रबाहु कौन से है, यह निर्णय कर पाना कठिन है। दिगम्बर विद्वानों ने दो भद्रबाहु की कल्पना की है - प्रथम भद्रबाहु जो पूर्वधर थे और भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् ई. पू. लगभग तीसरी शती में हुए है, वे आचार्य कुन्दकुन्द के वास्तविक गुरू नहीं हो सकते है, क्योंकि दोनों में काल का लम्बा अन्तराल है, दिगम्बर विद्वानों दूसरे भद्रबाहु की कल्पना ईसा की दूसरी शती में होने की है, किन्तु उनके साथ पूर्वधर आदि होने जो विशेषण दिये गये है, वे तो प्रथम भद्रबाहु के सम्बन्ध में युक्त या सुसंगत हो सकते हैं। पुनः कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भद्रबाहु प्रथम को ही गमक गुरू मानकर यह संगति बिठाई हैं, किन्तु यह वास्तविक संगति नहीं है, गमक गुरू मानने में कोई बाधा तो नहीं है, किन्तु इससे समकालिकता या प्राचीनता का निर्णय नहीं हो पाता है, क्योंकि आज भी भगवान महावीर या गौतम हमारे सबके गमक गुरू तो है ही। अस्तु । श्वेताम्बरों ने जिन दूसरे भद्रबाहु (बरामिहर के भाई) की कल्पना की है, उनका काल लगभग ई.सा. की सातवीं शती है, अतः उनसे भी कुन्दकुन्द की कालिक समरूपता ठीक से नहीं बैठती है। कुन्दकुन्द के गुरू के रूप में दूसरा नाम जिनचन्द्र का भी माना जाता है, किन्तु ये जिनचन्द्र कौन थे, कब हुए, ऐसा कोई भी सबल प्रमाण नहीं मिलता है। श्वेताम्बरों में जिनचन्द्र