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________________ 60 षट्खण्डागम में भी निर्युक्तियों की अनेक गाथाएं मिलती हैं, इससे यह ज्ञात होता है कि दोनों किसी समान परंपरा से ही विकसित हुए है । षट्खण्डागम पुस्तक 13 में सूत्र 4 से 16 तक की गाथाएं आवश्यकनिर्युक्ति में गाथा क्र. 31 से आगे और विशेषावश्यक भाष्य में गाथा क्र. 604 से यथावत् मिलती है । षट्खण्डागम और प्रज्ञापना के मूल स्रोत की यह एकरूपता यही सूचित करती है कि षट्खण्डागम का विकास भी उसी धारा से हुआ है, जिसमें प्रज्ञापना की रचना हुई । यद्यपि षट् - खण्डागम में कुछ स्थल तो ऐसे हैं, जो प्रज्ञापना की अपेक्षा भी प्राचीन परंपरा का अनुसरण करते हैं, किन्तु षट्खण्डागम में अनुयोगद्वार के माध्यम से जो व्याख्या शैली अपनाई गई है, उसमें नय - निक्षेप पद्धति का जो अनुसरण पाया जाता है, वह प्रज्ञापना में उपलब्ध नहीं है और इस दृष्टि से प्रज्ञापना षट्खण्डागम की अपेक्षा प्राचीन प्रतीत होता है । उसी प्रकार, प्रज्ञापना में गुणस्थान - सिद्धांत का कोई भी निर्देश उपलब्ध नहीं होता, जबकि षट्खण्डागम में तो गुणस्थान - सिद्धान्त विवेचन का मुख्य आधार रहा है । इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि प्रज्ञापना की अपेक्षा षट्खण्डागम परवर्ती है | जहाँ प्रज्ञापना ईसा पूर्व प्रथम शती की रचना है, | वहाँ षट्खण्डागम ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी के पूर्व की रचना नहीं है, फिर भी दोनों में विषयवस्तु एवं शैलीगत साम्य यही सूचित करता है कि दोनों के विकास का मूल स्रोत एक ही परंपरा है। I प्रो. हीरालाल जैन और प्रो. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने षट्खण्डागम की धवला टीका की पुस्तक 1, खण्ड 1, भाग 1 के द्वितीय संस्करण की अपनी भूमिका में पं. दलसुख भाई मालवणिया के उपर्युक्त विचारों की समीक्षा की है, किन्तु वे भी यह तो मानते ही है कि षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में विषयवस्तुगत साम्य है । " चाहे वे यह नहीं मानें कि षट्खण्डागम पर प्रज्ञापना का प्रभाव है, किन्तु इतना तो मानना ही होगा कि इस समानता का आधार दोनों की पूर्व परंपरा का होना है और यह सत्य है कि श्वेताम्बर और यापनीय- दोनों ही उत्तर भारत की निर्ग्रन्थ परंपरा के समान रूप से उत्तराधिकारी रहे हैं और इसीलिए दोनों की आगमिक परंपरा एक ही है तथा यही उनके आगमिक ग्रंथों की निकटता का कारण है । षट्खण्डागम में स्त्री-मुक्ति का समर्थन और श्वेताम्बर आगमिक और निर्युक्ति साहित्य से उसकी शैली और विषयवस्तुगत समानता यही सिद्ध करती है कि यह यापनीय परंपरा का ग्रंथ है।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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