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________________ 58 संबंध में है, ऐसा मानकर संतोष किया गया। प्रस्तुत प्रसंग में मैं उन सभी चर्चाओं को उठाना नहीं चाहता, केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि षट्खण्डागम के सूत्र 89 से लेकर 93 तक में केवल पर्याप्त मनुष्य और अपर्याप्त मनुष्य, पर्याप्त मनुष्यनी और अपर्याप्त मनुष्यनी की चर्चा है, द्रव्य और भाव मनुष्य या भावी मनुष्यनी की वहाँ कोई चर्चा ही नहीं है, अतः इस प्रसंग में द्रव्य स्त्री और भाव स्त्री का प्रश्न उठाना ही निरर्थक है। धवलाकार स्वयं भी इस स्थान पर शंकित था, क्योंकि इससे स्त्री-मुक्ति का समर्थन होता है, अतः उसने अपनी टीका में यह प्रश्न उठाया है कि मनुष्यनी के सदंर्भ में सप्तम गुणस्थान मानने पर उसमें 14 गुणस्थान भी मानने होंगे और फिर स्त्री-मुक्ति भी माननी 8 होगी, किन्तु जब देव, मनुष्य, तिर्यच आदि किसी के भी संबंध में मूल ग्रंथ में द्रव्य और भाव-स्त्री की चर्चा का प्रसंग नहीं उठाया गया, तो टीका में मनुष्यनी के संबंध में यह प्रसंग उठाना केवल साम्प्रदायिक आग्रह का ही सूचक है। वस्तुतः, प्रस्तुत ग्रंथ यापनीय सम्प्रदाय का रहा है। चूँकि उक्त सम्प्रदाय स्त्रीमुक्ति को स्वीकारता था, अतः उसे यह सूत्र रखने में कोई आपत्ति ही नहीं हो सकती थी । समस्या तो उन टीकाकार आचार्यों के सामने आई, जो स्त्री-मुक्ति का निषेध करने वाली दिगम्बर परंपरा की मान्यता के आधार पर इसका अर्थ करना चाहते थे । अतः, मूलग्रंथ में 'संजद' पद की उपस्थिति से षट्खण्डागम मूलतः यापनीय परंपरा का ग्रंथ सिद्ध है, इसमें किंचित् भी संशय का स्थान नहीं रह जाता है । यापनीय परंपरा के संबंध में यह भी सुनिश्चित है कि वे श्वेताम्बर आगमों को मानते थे और उनकी परंपरा में उनका अध्ययन-अध्यापन भी होता था । यही कारण है कि षट्खण्डागम की विषयवस्तु बहुत कुछ रूप में श्वेताम्बर परंपरा के प्रज्ञापना सूत्र से मिलती है, यद्यपि षट्खण्डागम में चिंतन का जो विकास है, वह प्रज्ञापना में नहीं है । इस संबंध में पं. दलसुख भाई मालवणिया ने विस्तार से जो चर्चा की हैं, उसे हम अतिसंक्षेप में यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं - 1. प्रज्ञापना और षट्खण्डागम - दोनों का आधार 'दृष्टिवाद' है, अतः दोनों की सामग्री का स्त्रोत एक ही है । 2. दोनों की विषयवस्तु में बहुत कुछ समानता है, किन्तु दोनों की निरूपण शैली भिन्न है - एक जीव को केन्द्र में रखकर विवेचना करता है तो दूसरा बद्ध कर्मों के क्षय के कारण निष्पन्न गुणस्थानों को दृष्टि में रखकर जीव का विवेचन करता है ।
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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