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________________ 57 नामोल्लेख नहीं है, जबकि उसी की भूमिका रूप में प्रक्षिप्त 3 श्लोकों में उसे मूलसंघ नंदीआम्नाय, बलात्कारगण, सरस्वती गच्छ और कुन्दकुन्दान्वय की पट्टावली कहा गया है । यदि ये भूमिकारूप 3 श्लोक इसी पट्टावली के अंश हैं, तो फिर यह पट्टावली पर्याप्त परवर्ती ही सिद्ध होगी, क्योंकि बलात्कारगण का उल्लेख सन् 1075 ई. के पूर्व नहीं मिलता है । स्वयं कुन्दकुन्दान्वय का, जिसकी यह पट्टावली कही जाती है, उल्लेख भी ई. सन् 931 के पूर्व कहीं नहीं मिलता है।' ऐसी स्थिति में पुष्पदन्त और भूतबलि के गुरु परंपरा और काल का निर्णय दि. पट्टावलियों और अभिलेखों के आधार पर कर पाना कठिन है । यद्यपि धवला और जयधवला में आये उनके उल्लेखों से उनकी ऐतिहासिकता सुनिश्चित है, किन्तु इस आधार पर उनको गुरु परंपरा तथा उनके काल का निर्णय नहीं किया जा सकता है । उनके काल और परंपरा का निर्णय करने का साधन हमारे पास उनके ग्रंथ की विषयवस्तु के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। यदि हम यह मानते हैं कि उनके विद्यागुरु धरसेन थे, तो उन्हें हमें ई. सन् की चौथी से पाँचवीं शताब्दी के बीच कहीं भी तो स्थापित करना होगा, किन्तु यह कालनिर्णय उनकी परंपरा का आधार नहीं बन सकता। यद्यपि इतना निश्चित है कि इस काल में यापनीय संघ सुस्थापित हो चुका था और इसलिए इनके यापनीय होने की संभावना को निरस्त नहीं किया जा सकता । वस्तुतः, षट्खण्डागम को यापनीय ग्रंथ सिद्ध करने के लिए सबसे आवश्यक तथ्य उसमें स्थापित उन मान्यताओं को स्पष्ट करना है, जिनके आधार पर उसे यापनीय ग्रंथ सिद्ध किया जा सके । अग्रिम पंक्तियों में हम उन तथ्यों को प्रस्तुत करेंगे, जिनके आधार पर षटखण्डागम और उनके कर्ता पुष्पदन्त और भूतबलि को यापनीय परंपरा का माना जा सकता है । षट्खण्डागम और उसकी विषयवस्तु षट्खण्डागम के यापनीय परंपरा से संबंधित होने का सबसे महत्वपूर्ण एवं अन्यतम प्रमाण उसमें सत्प्ररूपणा नामक अनुयोगद्वार का 93वाँ सूत्र है, जिसमें पर्याप्त मनुष्यनी (स्त्री) में संयत-गुणस्थान की उपस्थिति को स्वीकार किया गया है, जो प्रकारान्तर से स्त्री-मुक्ति का सूचक है।' यद्यपि दिगम्बर परंपरा में इस सूत्र के 'संजद' पद को लेकर काफी ऊहापोह हुआ और मूलग्रंथ से प्रतिलिपि करते समय कागज और ताम्रपत्र पर की गई प्रतिलिपियों से इसे छोड़ दिया गया था। यद्यपि अन्त में संपादकों के आग्रह को मानकर मुद्रित प्रति में संजद पद रखा गया और यह 'संजद' पद भावस्त्री के
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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