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करें, तो हमें उनका काल ई. सन् की दूसरी शती से नीचे उतारकर 5वीं या छठवीं शताब्दी तक लाना होगा, क्योंकि धवला में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि वीर निर्वाण के 683 वर्ष पश्चात् संपूर्ण आचाराङ्ग के धारक लोहार्य हुए। उनके पश्चात् जो भी आचार्य हुए, वे सब अंग और पूर्वी के एक देश के धारक थे, अर्थात् उन्हें अंग और पूर्वों का आंशिक ज्ञान ही था। अंग और पूर्वों का यह आंशिक ज्ञान आचार्य परंपरा से आता हुआ धरसेन को प्राप्त हुआ ।" धवला का यह कथन महत्वपूर्ण है। लोहार्य और धरसेन के बीच के आचार्यों के संदर्भ में धवलाकार का यह अज्ञान स्पष्ट रूप से यह बतलाता है कि कम से कम उनके बीच 200 वर्ष से अधिक का अंतर रहा होगा, अतः धरसेन वीर निर्वाण के 683 + 200 = 883 वर्ष पश्चात्, अर्थात् ई. सन् की चतुर्थ शताब्दी के बाद ही हुए होंगे, परंतु प्रो. मधुसूदन ढाकी" के अनुसार धरसेन का काल ई. सन् की 5 - 6ठी शताब्दी के आस-पास है। चाहे हम धरसेन को परवर्ती ही क्यों न स्वीकार करें, किन्तु अन्य कुछ ऐसे प्रमाण हैं, जिनके आधार पर भी उन्हें दक्षिण भारतीय दिगम्बर परंपरा से संबंद्ध नहीं माना जा सकता ।
यह स्पष्ट है कि धरसेन ने षट्खंडागम की रचना नहीं की थी, उन्होंने तो मात्र पुष्पदंत और भूतबलि को महाकर्मप्रकृति प्राभृत का अध्ययन कराया था । महाकर्मप्रकृति प्राभृत भी उत्तर भारत की अविभक्त निर्ग्रथ परंपरा में ही निर्मित हुआ था । नंदीसूत्र पट्टावली में आर्य नागहस्ति को कर्मप्रकृति और व्याकरण शास्त्र का ज्ञाता कहा गया है ।" वस्तुतः, यही कर्मप्रकृतिशास्त्र आगे चलकर श्वेताम्बर परंपरा में शिवशर्म द्वारा रचित कर्मप्रकृति आदि ग्रंथों का और यापनीय परंपरा में पुष्पदंत और भूतबलि द्वारा रचित षट्खंडागम का आधार बना है। चूँकि यापनीय और श्वेताम्बरदोनों ही इस परंपरा के उत्तराधिकारी थे, अतः यह स्वाभाविक ही था कि दोनों परम्पराओं में इस कर्मप्रकृति शास्त्र के आधार पर ग्रंथ रचनाएँ हुई। अतः, धरसेन उत्तर भारतीय निर्ग्रथ संघ के ही आचार्य सिद्ध होते हैं ।
यदि हम धरसेन के विहार क्षेत्र की दृष्टि से भी विचार करें, तो भी यह स्पष्ट है कि उन्होंने पुष्पदन्त और भूतबलि को महाकर्मप्रकृतिशास्त्र का अध्यापन सौराष्ट देश के गिरिनगर की चन्द्रगुहा में कराया था । सौराष्ट में प्राचीन काल से लेकर आज तक श्वेताम्बर तथा यापनीय तथा यापनीयों से निकले पुन्नाट और लाड़बागड़ गच्छौं का प्रभुत्व रहा है, अतः क्षेत्र की पुष्टि से भी धरसेन या तो उस अविभक्त निर्ग्रन्थ परंपरा के