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आचार्य हैं, जिससे श्वेताम्बरों और यापनीयों का प्रादुर्भाव हुआ है, या फिर वे उत्तर भारतीयअचेल यापनीय परंपरा से सम्बद्ध रहे हैं।
___ इस प्रकार, साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों, आधारभूत ग्रंथ, क्षेत्र तथा काल- सभी दृष्टियों से धरसेन तथाकथित मूलसंघीय दिगम्बर परंपरा से सम्बद्ध न होकर श्वेताम्बर या यापनीय परंपरा से अथवा उनकी पूर्वज उत्तर भारत की अविभक्त निग्रंथ परंपरा से ही सम्बद्ध प्रतीत होते हैं और उनका काल ईसा की चौथी - पांचवीं शती के लगभग माना जा सकता है। उनका प्रसिद्ध ग्रंथ जोणीपाहुड हो सकती है और वे महाकर्म प्रकृतिशास्त्र के विशेष ज्ञाता थे और उन्होंने कर्मशास्त्र का विशेष ज्ञान पुष्पदंत औरभूतबलि को दियाथा। संदर्भ: 1. जैन शिलालेखसंग्रहभाग 2, लेख क्रमांक।
(अ) षट्खण्डागम परिशीलन (बालचन्द्रशास्त्री), पृ. 20
(ब) जैन साहित्य का वृहद् - इतिहास, भाग 5, पृ. 200-202. 3. योनिप्राभृतं वीरात् 600 धारसेनम्
- वृहटिप्पणिका जैन साहित्य संशोधक परिशिष्ट 1 एवं 2 4. इति रुक्खायुव्वेदे जोणिविहाणे य विसरिसेहितो।
- विशेषावश्यकभाष्य (आगमोदय समिति), गाथा 1775. जोणिपाहुडातिणाजहा सिद्धसेणायरिएणअस्साए कता।
- निशीथचूर्णि, खण्ड 2, पृ. 281. 6. विशेषावश्यकभाष्य (मलधारगच्छीय हेमचन्द्र की टीकासहित)
गाथा 1775 कीटीका. णमो सिद्धाणं णमो जोणीपाहुडसिद्धाणं ... मगवं सव्वण्णू जेण एवं सव्वं जोणी-पाहुड भणियं ...। - कुवलयमाला , (उद्योतनसूरि), भारतीय विद्या
भवन, पृ. 196-97. 8. जिणभासियपुव्वगए जोणोपाहुडसुए समुद्दिट्टं।
एयंपिसंघकज्जे कायव्वं धीरपुरिसेहिं।। - जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 5, पृ. 201